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________________ १२२ दयालुत्व गुण पर ___ इस प्रकार श्रमण का रूप गुण से बहु मूल्य होकर देवताओं को भी मंगलकारी है तो हे नरनाथ ! तुमने उसे अपशकुन कैसे माना ? इत्यादि सुनकर राजा के मन में से अति दुष्ट मिथ्यात्व का नाश हो गया। जिससे वह हर्षित हो मुनिनाथ के चरणों में गिर कर अपने अपराध की क्षमा मांगने लगा। ___मुनि बोले कि-हे नरेश्वर ! इतना संभ्रम किसलिये करता है। मैंने तो प्रथम ही से तुझे क्षमा किया है। कारण कि क्षमा रखना ही हमारा श्रमण धर्म है।। राजा ने विचार किया कि- ऐसे मुनिश्वर के ज्ञान में कोई बात अज्ञात हो ऐसो नहीं। यह विचार कर उसने अपने बाप तथा पितामहो को क्या गति हुई होगी, सो उक्त मुनि से पूछी। तब मुनि ने आटे के मुर्गे से लेकर जयावली के गर्भ तथा पुत्र पुत्री होने तक का वृत्तान्त कह सुनाया। तब राजा ने सोचा कि- अहो हो ! स्त्रियों को क्रूरता देखो व मोह को महिमा देखो, वैसे ही संसार की दुष्टता देखो। जब कि शांति के निमित्त आटे के मुर्गे का किया हुआ वध तक मेरे पिता व पितामही को ऐसे भयंकर विपाक का कारण हो गया, तो हाय, हाय ! मेरी क्या गति होगी ? क्योंकि मैंने तो निरर्थक सैकड़ों जीव नित्य अति क्रोध, लोभ तथा मोह से व्याकुल चित्त रखकर मार डाले हैं । अतएव मुझे तो निश्चय बाण के समान सोधा नरक मार्ग को जाना पड़ेगा। इसमें कुछ भी उपाय नहीं। अथवा इन भगवान् को इसका उपाय पूछू। इतने में मुनि ने राजा के विचार समझ कहा कि-हे नरवर ! सुन, इसका उपाय है वह यह है कि- मन, वचन और काया से विशुद्ध होकर जिनेश्वर का सद्धर्म अंगीकार कर ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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