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________________ अब टीकाकार मूलग्र'थकी प्रथमगाथा के लिये अवतरण लिखते हैं । इस जगत में त्यागने व ग्रहण करने योग्य इत्यादि पदार्थों की समझ रखने वाले जन्म-जरा-मरण तथा रोग-शोकादि विषम दुखों से पीड़ित भव्यप्राणी ने स्वर्ग- मोक्षादि सुख संपदा का मजबूत कारणभूत सद्धर्मरूपी रत्न ग्रहण करना चाहिये । उस (सद्धर्मरत्न) के ग्रहण करने का उपाय गुरुके उपदेश बिना भली भांति नहीं जाना जा सकता और जो उपाय नहीं है उसमें प्रवृत्ति करनेवालों को इच्छित अर्थ को सिद्धि नहीं होती । इसलिये सूत्रकार करुणा से पवित्र अन्तःकरण वाले होने से, धर्मार्थी प्राणियों को धर्म ग्रहण करने तथा उसका पालन करने का उपदेश देने के इच्छुक होकर सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण कर प्रथम आदि में इष्ट देवता नमस्कार इत्यादि विषय प्रतिपादन करने के हेतु यह गाथा कहते हैं । नमिऊण सयलगुणरयणकुंलहरं विमल केवलं वीरं । धम्मरयणस्थियाणं जणाण वियरेमि उवएसं ॥ १ ॥ अर्थः- सकल गुणरूपी रत्नों के उत्पत्ति स्थान समान निर्मल केवलज्ञानवान् वीरप्रभु को नमन करके धर्मरत्न के अर्थी जनों को उपदेश देता हूँ । इस गाथा के पूर्वार्द्ध द्वारा अभीष्ट देवता को नमस्कार करने के द्वार से विघ्न विनायक बड़े विघ्न की उपशान्ति के हेतु मंगल कह बताया है, और उत्तरार्द्ध द्वारा अभिधेय कह बताया है । सम्बन्ध और प्रयोजन तो सामर्थ्य गम्य है, अर्थात् अपने सामर्थ्य ही से ज्ञात होता है, वह इस प्रकार है ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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