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________________ विजयकुमार की कथा ९७ आज भी मेरी पूजा किये बिना तू यह काम करता है, इसलिये हे धृष्ट ! आज तेरा नाश होने वाला है। ___ मेरे मुख में से निकलती हुई अग्नि तुझे और इस कुमार को भी तृण के समान क्षण भर में जला देगी, कारण कि इसने भी कुसंग किया है। उसके वचन सुनने से क्रोधित हो कुमार कहने लगा कि अरे ! तू ही आज मौत के मुह में पड़ने वाला है । जब तक मैं पास खड़ा हूँ तब तक इन्द्र भी इसे विघ्न नहीं कर सकता । यह कहता हुआ कुमार तुरत उस राक्षस के पास आ पहुँचा । अब वे दोनों क्रोध से भ्रकुटी सिकोड़कर और ओष्ठ दाब कर एक दूसरे पर प्रहार करने लगे तथा कठोर वचनों से तर्जना करने लगे। ___ इस प्रकार युद्ध करते हुए वे दूर गये । इतने में नवीन रजनीचर (चन्द्र) के समान वह कुटिल रजनीचर (राक्षस) क्षण भर में अदृश्य हो गया। तब कुमार पीछा आकर देखने लगा तो योगी को मरा हुआ देखा जिससे वह महा दुःखित होकर विद्याधरी को देखने लगा, तो उसे भी नहीं देखा। जिससे वह लुट गया हो उस भांति दीन क्षीण मुख हो अपनी निन्दा करने लगा कि हाय ! मैं शरणागत की भी रक्षा नहीं कर सका। इतने में उक्त विद्याधर शीघ्र वहां आकर कुमार को कहने लगा कि तेरे प्रभाव से मैंने अपने दक्ष शत्रु को भी मार डाला है । अतएव हे परनारी सहोदर, शरणागत की रक्षा करने में वन पिंजर समान सुधीर ! निर्मल कार्य करने वाले कुमार ! मेरी प्राण-प्रिया मुझे दे । परकार्य साधन में तत्पर इस जीवलोक में तेरे समान दूसरा कोई नहीं है तथा तेरे जन्म से जयतुग राजा का वंश शोभित हुआ है।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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