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________________ विजयकुमार की कथा . तथाचोक्तअवि गिरिवर भरदुरतेण, दुक्खभारेण जति पंचत्त', न उणो कुणंति कम्म, सप्पुरिसा जं न कायव्वं ।। (इति) कहा भी है कि:-पर्वत समान भारी दुःख से मृत्यु को प्राप्त हों, तो भी सतपुरुष जो न करने का काम हो उसे नहीं करते । तथा सदाचार याने सुव्यवहार का आचरण करते हैं--याने पालन करते हैं--क्योंकि उसमें कोई शरम नहीं लगती । तथा अंगीकृत याने स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा विशेष को वैसा पुरुष किसी भी प्रकार याने कि स्नेह अथवा बलाभियोग आदि किसी भी प्रकार से छोड़ता नहीं याने त्याग करता नहीं, कारण कि आरंभ किये हुए कार्य को छोड़ना यह लज्जा का कारण है । उक्त च-दूरे ता अन्नजणो, अंगे च्चिय जाई पंच भूयाई। तेसि पि य लज्जिज्जइ, पारद्ध परिहरतेहिं ।। कहा है किः- शेष लोग तो दूर रहे परन्तु अपने अंग में जो पांच भूत हैं उनसे भी जो प्रारंभ किया हुआ कार्य छोड़ता है उसे लज्जित होना पड़ता है। __ सुकुल में उत्पन्न हुआ पुरुष ऐसा होता है-विजयकुमार के समान। -- * विजयकुमार की कथा * .. सुविशाल किलेवाली और विस्तार तथा समृद्धि इन दो प्रकार से महान् विशाला नामक नगरी थी। वहां जयतुग नामक राजा था, उसकी चन्द्रवती नामक स्त्री थी। उनको लज्जा रूप नदियों का नदनाह (समुद्र) और प्रताप से सूर्य को जीतने वाला तथा परोपकार करने में तत्पर विजय नामक पुत्र था ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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