SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षुल्लककुमार की कथा ग्रहण कर । शरीर को क्लेश देने वाले व्रतों का तुझे क्या काम है ? क्षुल्लक बोला कि- हे नरवर ! चिरकाल प्राप्त अपने संयम को अन्त में राज्य के लिये कौन निष्फल करे। पश्चात् अपने पुत्र आदि को राजा ने कहा कि तुमने जो दान दिया उसका कारण कहो । तब राजपुत्र बोला- हे पिताजी ! मैं आपको मारकर यह राज्य लेना चाहता था, किन्तु यह गीत सुन कर राज्य व विषयों से विरक्त हुआ हूँ। श्रीकान्ता बोली कि-हे नरवर ! मेरे पति को विदेश गये बारह वर्ष व्यतीत हो गये हैं, जिससे मैं विचाने लगी कि अब दूसरा पति करू', क्योंकि प्रवासी पति की आशा से व्यर्थ क्लेश पाती हूँ, परन्तु यह गीत सुनने से अब स्थिर चित्त हो गई हूँ। स्पष्ट सत्य भाषी जयसंधि बोला कि, हे देव ! मैं स्नेह प्रीति बताने वाले अन्य राजाओं के साथ मिल जाऊं कि क्या करू ? इस प्रकार डगमग हो रहा था, परन्तु अभी यह गीत श्रवण कर तुम पर दृढ़ भक्तिवान् हो गया हूँ। __महावत बोला कि मुझे भी सरहद्द पर के दुष्ट राजा कहते थे कि पट्रहस्ती को लाकर हमें सौंप अथवा उसे मार डाल । जिससे मैं बहुत काल से अस्थिर चित्त हो रहा था, परन्तु अभी उक्त गीत सुनकर स्वामी के साथ दगा करने से विमुख हुआ हूँ। इस प्रकार उनके अभिप्राय जानकर प्रसन्न हो राजा ने उन्हें आज्ञा दी कि-अब जैसा तुम्हें उचित जान पड़े वैसा करो। इस प्रकार का अकार्य करके अपन कितनेक जीने वाले हैं ? यह कह कर वे वैराग्य प्राप्त कर क्षुल्लक कुमार से प्रबजित हुए ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy