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(१७) सुजन चित्त विकार कारन, मनहुँ मदिरा पान ॥ जो नरम जय चिंता बढावन, असित सरप समान ॥ जो जंतुजीवन हरन, विषसम, जग दहन दवदान ॥ सो कोपरासि विनासि नवि जन, लहत शिवसुख थान ॥ ४५ ॥
वली पण क्रोधजयने माटें कहे . ॥ हरिणीरत्तम् ॥ फलति कलितश्रेयः श्रेणिप्रसूनपरंपरः, प्रशमपयसा सिक्तो मुक्तिं तपश्चरणमः॥ यदि पुनरसौ प्रत्यासत्ति प्रकोपदविर्जुजो, नजति बनते नस्मीनावं तदा विफलोदयः॥४६॥
अर्थः-( तपश्चरणामः के० ) तप चारित्ररूप जे वृद ते (मुक्ति के) मोदने (फलति के० ) निष्पादन करे. ते केहवो वृद बे? तो के (कलित श्रेयः श्रेणिप्रसूनपरंपरः के०) उत्पन्न करी जाणे कल्याणनीज पंक्ति होय नही तेम पुष्पनी पंक्ति जेणे. वली ते वृक्ष केहवो ? तो के (प्रशमपयसा के०) उपशमरूपजलें करी ( सिक्तः के०) सिंचेलो . तो पण (पुनः के०) वली (असौ के०)