SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५५ ) से पराङ मुखता याने क्रोध, मानादि में ओतप्रोतता होना; वह भी आर्त ध्यान ही हुआ। इसमें विशेषता यह है जीवन में धर्म तो हो, पर वह अशुद्ध, असर्वज्ञ-कथित या हिंसा रागादि पाप से मिश्रित हो तो वहां भी उसके कार्य आत्महितकारी न होकर मनमाने इष्ट के लिए हो जाते हैं और इसीलिए उन पर का ध्यान आत ध्यान रूप हो जाता है। कैसी दु:खद स्थिति ! धर्म के नाम की प्रवृत्ति में भी आर्त ध्यान ? इसीलिए कहा है कि 'धर्म वही है जो दुर्गति में गिरने वाले आत्मा को बचा ले' 'धारयतीति धर्म:'-धारण करे, बचावे वह धर्म। ११. प्रमाद में तत्परः- 'मज्जं विसय कसाया, निहा विगहा य पंच पमाया' इस वचन से शराब आदि व्यसन, शब्दादि विषयों का आकर्षण, क्रोधादि कषाय, निद्रा तथा राजकथा भोजन कथा आदि विकथा ये पांच प्रमाद हैं। इनमें लीन रहने वाले को आत ध्यान होता ही रहता है। उदा० ऊपर ऊपर से देखने से ऐसा लगता है कि 'हमने यदि भोजन सम्बन्धी कोई बात की तो इसमें आर्त्त ध्यान कसे ?' परन्तु यह अज्ञानता है। इसके पीछे भोजन के इष्ट अनिष्ट की कल्पना लगी हुई ही है, अत: स्वाभाविक ही वह आत ध्यान करवाता है। १२. जिन वचन की लापरवाही रखने वाले को भी आर्त ध्यान होता रहता है। प्रश्न- सद्धर्म पराङ मुख कहने के बाद यह कहने की क्या जरूरत है ? उत्तर- इसकी अलग से कहने की जरूरत इसलिए है कि 'सद्धर्म-पराङ मुख' तो न हो, कम से कम जीवन में सद्धर्म के जिन वचन की श्रद्धा करता हो, इतनी सन्मुखता हो, परन्तु दूसरी ओर अर्थ काम में इतना अधिक फंसा रहता है कि सद्धर्म की साधना
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy