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________________ ( ५० ) तस्सकंदण सोयण परिदेवण ताडणाई लिङ्गाई। ईट्ठानिट्ठ - विप्रोगाविरोग - वियणा- निमित्ताई ॥१५॥ निन्दइ य नियकयाई पससइ सविम्हो विभूईओ । पत्थेइ तासु रजइ तयजण - परायणो होइ ॥१६।। सद्दाइविसगिद्धो सद्धम्म - परम्मुहो पमायपरो । - जिणमयमणवेक्खंतो वट्टइ अट्टमि झाणंमि ॥१७॥ .. अर्थ:-आर्त ध्यान के लिंग (चिह्न) हैं आक्रन्द, शोक, क्रोध, पीटना आदि। ये इष्टवियोग, अनिष्ट अवियोग तथा वेदना के कारण से होते हैं । (पुनः) अपने किये हुए कार्य की ( अल्पफल आने से या निष्फल जाने से ) निन्दा करता है तथा दूसरे की सम्पत्ति की विस्मित हृदय से प्रशंसा करता है, अभिलाषा करता है, उसी में रक्त बनता है और उसका उपार्जन करने में लग जाता है। शब्दादि विषयों में गृद्ध व मूर्छित बनता है, क्षमादि चारित्र धर्म से पराङमुख बनता है और मद्यादि प्रमाद में आसक्त होता है। आर्त ध्यान में रहा हुआ जीव जिनागम से निरपेक्ष बनता है। आर्त ध्यान के बाह्य चिन्ह आर्त ध्यान दिल में स्थित है, वह बाह्य कौन से चिह्नों से पहचाना जा सकता है, यह अब बताते हैं:विवेचन : कभी कभी मनुष्य अपने आपको चतुर समझ कर यह मान लेता है कि मुझे आर्तध्यान नहीं होता; परन्तु दिल में वह स्थित है, यह बाह्य लक्षण पर से साबित होता है। कारण कि ये लक्षण अन्तर से आर्त्तध्यान हुए बिना नहीं हो सकते। तो रात दिन ऐसे
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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