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________________ ( ३४ ) कर्म रोकने सम्बन्धी महर्षि वचन 'पुवि खलुभो ! कडाणं कम्माणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिकंताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेदयिता, तवसा वा झोसइत्ता।' ___ अर्थ:-हे महानुभाव ! पूर्व में दुष्टमन से किये कर्मों का (आलोचना व प्रायश्चित द्वारा) प्रतिक्रमण नहीं किया हो तो उन कर्मों को सचमुच में भोगने से ही उनसे छुटकारा होगा, भोगे बिना या तप से क्षीण किये बिना नहीं।' जीवन जीने में ४ प्रकार की सावधानी मुनि इस सूत्र के अनुसार इस जन्म के बारे में दो तथा अम्मांतर के बारे में दो, इस तरह कुल ४ प्रकार से सावधानी रखता है। १. मन वचन काया की असत् प्रवृत्ति से बचना, जिससे अशुभ कर्म बंध, संक्रमणादि और कुसंस्करण से बच जाय । २. असत्प्रवृत्ति के हो जाने पर पश्चात्ताप, आलोचना या प्रायः श्चित द्वारा प्रतिक्रमण करना अर्थात् पाप से पीछे हटना। ३. पूर्व जन्म के अशुभ कर्मों के उदय से आने वाली पीड़ा को समभाव से प्रसन्नता से भोगना, तथा ४. पूर्व बद्ध कर्म के क्षय के लिये बाह्य आभ्यंतर तप में रत्त रहना। पीड़ा के समय शुभ विचार - ये सावधानी रखने से आर्तध्यान होने का अवकाश ही कहां रहा ? सहन करने का हो तब (१) शुद्ध आत्म वस्तु (२) कर्म वस्तु व (३) बाह्य निमित्त अर्थात् वस्तु के सच्चे स्वरूप पर बराबर दृष्टि रहे; तो फिर पीड़ा या वेदना में असमाधि या अस्वस्थ चित होने का कोई कारण नहीं रहता। वह समझता है कि
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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