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________________ ( २९ ) एवं चउविहीं रागद्दोस मोह वि.यस्स जीवस्स । अज्झाणं संमारवद्धणं तिरियगइमूलं ॥१०॥ अर्थ- यह चारों प्रकार का आर्तध्यान रागद्वेष तथा मोह से कलुषित जीव को होता है। वह संसार वर्धक है और तिल्चगति का कारण है। ---------------- ----------- --- कहा है:प्रज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते । कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुगार्जने या । विञ्चित्तं भवति च महत् मोक्षकांकतानं । नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्य समिति गजेन्द्रः । अर्थ:-स्त्रियों के चपल कटाक्ष से आकर्षित होकर जो जीव काम में आसक्त होते हैं वे अज्ञान से अंध हैं अथवा अति वैभव का विस्तार कमाने में आसक्त भी अज्ञानांध है। तब ज्ञानी का विशाल चित्त ( ऐसे तुच्छ अर्थ काम में चिपकता नहीं है ) मात्र एक मोक्ष को ही इच्छा में रक्त रहता है। देखिये, श्रेष्ठ हाथी खुजलाने के लिए भी छोटे वृक्ष के साथ अपने कन्धे को नहीं घिसता। तो फिर ज्ञानी तुच्छ विषयों में अपना मन क्यों डाले ? उन्हें तो निरपेक्ष निराबाध स्वाधीन अनन्त सुखमय मोक्ष की ही लगन होती है। .. यह आर्त ध्यान के चौथे प्रकार की बात हुई। ध्यान का स्वामी और फल अब इस ध्यान के स्वामी कौन हैं तथा फल क्या है यह कहते हैं : -- -
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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