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________________ 7 १६ ) तो मुहु पर चिंता झाणतरं व होज्जाहि । सुचिरंषि होज्ज बहुवत्थुसंक मे झाणसंवाणी ||४|| अर्थ : (छद्मस्थ को ध्यान के) अन्तर्मुहूर्त बाद चिंता, भावना या अन्तर होकर पुनः तुरंत ध्यान लगता है । इस तरह बहुत सी वस्तुओं पर क्रमशः चित्त का स्थिरतापूर्वक अवस्थान दीर्घकाल तक चलता रहता है । उसे संतति या ध्यानधारा कहते हैं । इसलिए यह योगनिरोध क्रिया भी ध्यान रूप है और वह मात्र अन्तर्मुहूर्त तक ही चलती है। इसलिए सर्वज्ञ के लिए योगनिरोध ही ध्यान कहा । यह उन्हें ( सर्वज्ञ भगवन्त ) ही होता है, क्योंकि दूसरे के लिए यह करना असम्भव है । सर्वज्ञ को किस तरह व कितने काल तक होता हैं वह आगे कहा जायगा । अब छद्मस्थ को अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्यान के बाद क्या होता है सो कहते हैं: -- विवेचन : ध्यानांसर--अन्तर्मुहूर्त में एक ध्यान का अन्त होता ही है । उसके बाद पूर्वोक्त 'चित्त' अवस्था याने चिता, भावना या अनुप्रेक्षा आती है। यहां गाथायें जो 'ध्यानांतर' कहा है, उसका अर्थ दूसरा ध्यान नहीं, पर 'ध्यान का अन्तर' याने बीच में पड़ने वाला अन्तर या निकलने वाला समय ( Interim eriod) यह अन्तर (gap) चिंता, भावना या अनुप्रेक्षा से पड़ता है । पर उसे अन्तर तो तभी कहेंगे जब कि पुनः तुरंत दूसरा ध्यान शुरू हो जाय । 'ध्यान का अन्तर' का अर्थ ही यह है कि दो ध्यान के बीच का समय, उस समय में होने वाली क्रिया । ध्यान धाराः- अब यह दूसरा ध्यान अन्तर्मुहूर्त में पूरा
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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