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________________ ( १३ ) उसमें से अवश्य विचलित होगा। यहां 'वस्तु' कहा है। यह वस्तु अर्थात् जिसमें गुण तथा पर्याय रहते हैं अर्थात् कोई चेतन या जड़ द्रव्य। चेतन के गुण ज्ञान दर्शनादि । जड़ पुद्गल के गुण, रूप रसादि। चेतन के पर्याय अर्थात् देवत्व, मनुष्यत्व, बचपन या कुमारावस्था आदि । जड़ के पर्याय पिंडत्व, शंकु या घड्रा आदि अवस्था । ऐसी गुण पर्याय वाली किसी वस्तु पर ध्यान सतत ज्यादा से ज्यादा अन्तर्मुहूर्त तक टिक सकता है । यह ध्यान के काल की बात हुई। ध्यान के स्वामी छद्मस्थ भी व केवली भी होते हैं। छद्म याने ज्ञानादि गुण का आच्छादन करे, ढक दे, वे ज्ञानावरणादि घाती कर्म। उसमें रहे हुए (जिस पर ये कर्म हैं वह) छद्मस्थ। उनके मन को एकाग्रता सतत अन्तमुहूतं मात्र को। जिसके घाती कर्म नष्ट होने से जो सर्वज्ञ केवली हो चुके हैं, उन्हें सभी कुछ प्रत्यक्ष होने से तथा साधना संपूर्ण हो जाने से ध्यान याने एकाग्र चिंतन करने का कुछ रहता ही नहीं। तब भी वे अन्त में जो योगनिरोध करते हैं, वही उन्हें ध्यान रूप होता है। जैसा इसी ग्रन्थ में आगे कहा जाएगा, मात्र मन की ही नहीं, काया की सुनिश्चलता भी ध्यान ही है और योगनिरोध में वह होता है। योग तथा निरोध क्या चीज है ? योग अर्थात् औदारिकादि शरीर आदि के संयोग से उत्पन्न आत्मा के परिणामरूप व्यापार । जैसे कहा है कि औदारिकादि शरोर के सम्बन्ध के कारण आत्मा में जो वीय स्फुरण होता है वह काययोग है। औदारिक, वक्रिय, आहारक शरार के व्यापार से जीव पहले भाषाद्रव्य, भाषावर्गणा के पुद्गल ग्रहण करता है (और
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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