SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३०२ ) इयमव्वगुणाधाणं दिट्ठादिसमाहणं झाणं । सुपसत्थं सद्धयं नेयं यं च निच्चपि ॥ १०५ । अर्थ :- इस तरह ध्यान सकल गुणों का स्थान है, दृष्य दृष्ट सुखों का साधन है, अत्यन्त प्रशस्त है; अतः वह सर्वं काल में श्रद्ध ेय है, ज्ञातव्य है और ध्यातव्य है । विवेचन : शुभ ध्यान का उक्त द्वारों से विचार किया । इस पर मे यह फलित होता है कि ध्यान समस्त गुणों का स्थान हैं। उदा० पहला तो ध्यान के लिए भूमिका रूप जो भावना बतलाई उसमें ज्ञानदर्शन चारित्र के और वैराग्य के अनेक गुणों का पोषण होता है। फिर ध्यान के आलम्बनों में वाचनादि तथा क्षमादि के अनेक गुणों को अवकाश मिलता है । इसके ध्यातव्य आज्ञा विचयादि के ध्यान में जिनवचन अनेक रुचि बहुमान आदि अनेक गुणों का पोषण होता है । तब ध्यान के अधिकारी ध्याता बनने मे तथा अनुप्रेक्षार्थ ध्यान से भावित बनने में भी अनेकानेक गुरणों को स्थान मिलता है। ध्यानी की प्रशस्त लेश्या और लिंगों में तो स्पष्टतया अद्भुत गुणों का ही समर्थन होता है । सारांश ध्यान इन सकल गुरणों को अवकाश देता है । ध्यान इन गुणों के साथ साथ दृष्ट अदृष्ट सुखों को भी अवकाश देता है । फल द्वार में धर्मध्यान शुक्लध्यान में जो फल बताया, उदा० विपुल शुभाश्रव, संवर, निर्जरा, अमर सुखों से लेकर अन्त में जो मानसिक शारीरिक दुखों का अन्त बताया, उससे ध्यान से परोक्ष में और प्रत्यक्ष में महा अनन्य सुख होने का सूचित किया । इस तरह ध्यान गुणों और सुखों का भण्डार होने से सुप्रशस्त है । श्री तीर्थंकर देव तथा गणधर महाराजा आदि से भी सेवित 1
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy