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________________ ( २८८ ) होंति सुहासव संवर विणिज्जरामर सुहाई बिउलाई । झाणवरस्स फलाई सुहाणुवंधीणि अर्थ :- उत्तम ध्यान 'धर्म ध्यान' के फल विपुल शुभ आश्रव, संवर, निर्जरा और दिव्य सुख होते हैं, ये भी शुभ अनुबन्ध वाले 1 धम्प्रस्त । ९३।। एक विशेषता यह है कि वह शरीर तथा उपाधि से बिलकुल निःसंग बनकर उसका सर्वथा व्युत्सर्ग याने त्याग करता है । 'विवेक' में शरीर आदि बिल्कुल अलग माने तथा व्युत्सर्ग में उनका ममत्व छोड़ दिया, उसे वोसिरे कर दिया । प्रश्न - शुक्ल ध्यान में ही शरीर आदि का व्युत्सर्गं किया तो फिर केवलज्ञान होने के बाद वे शरीरादि कैसे रख सकते हैं ? उत्तर- वे शरीर को राग ममत्व आसंग से रखते ही नहीं है, क्योंकि अब तो वे वीतराग बन चुके होने से शरीरादि पर उनको लेश मात्र भी रागादि होता ही नहीं। तब भी शरीरादि जो रहता है, वह तो निरूपक्रम आयुष्य आदि कर्म का संचालन है। बाकी वीतराग केवलज्ञानी शरीर आदि इच्छा से व राग से रखते ही नहीं है । यह लिंग द्वार पूरा हुआ । अब फल' द्वार कहते हैं । धर्म ध्यान के फल यहां लाघव के लिए पहले कहा वैसे धर्मध्यान का फल कहकर बाद में शुक्लध्यान का फल कहते हैं । इसमें लाघव यह है कि पहले दो शुक्लध्यान का फल तो जो धर्मध्यान का फल है वही है, पर वह विशेष शुद्ध होता है । अतः धर्मध्यान के फल पहले बता दिया हों तो फिर शुक्लध्यान के लिए पूर्व निर्देश ही करना रहा याने 'यही पूर्वं निर्दिष्ट फल', पर पुनः नाम के साथ सभी फल
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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