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________________ ( २६४ ) यहां शुक्लध्यान के अन्तिम दो प्रकार का उपयोग है। उसका क्रम इस प्रकार से है:-१३२ गुणस्थानक के अन्तिम हिस्से में कायनिरोध के प्रारम्भ से 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृति' नामक शुक्रध्यान का तीसरा प्रकार शुरू हुआ। कहा है : 'तणुरोहारंभाप्रो झायइ सुहम किरिय नियट्टि सो । वोच्छिन्न किरियमप्पडिवाइ सेलेसी कालं मि ॥' शैलेशी काल में 'व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपात' नामक चौथा प्रकार काम करता है । शुक्ल ध्यान का तीसरा प्रकार तो काययोग निरोध करना प्रारम्भ करे तब से अर्थात् सूक्ष्म काययोग द्वारा बादर काययोग का निरोध करना प्रारम्भ करे तब से होता है। इसीलिए यहां सूक्ष्म क्रिया योगक्रिया। सूक्ष्म काययोग अभी निवृत नहीं है । वह काम करता है। इसीलिए वह 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति' ध्यान कहलाता है। तो चौथा प्रकार १४वें गुणस्थनक याने शैलेशी के समय होता है और वहां तो योगक्रिया सर्वथा निरुद्ध है, हमेशा के लिए उच्छिन्न है ; कभी भी अब इस 'व्युच्छिन्न क्रिया' अवस्था का प्रतिपात याने पतन याने अन्त नहीं होगा। इसलिए इस प्रकार को व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती कहते हैं । शैलेशी में कर्मक्षय की प्रक्रिया इस तरह से है कि शैलेशी करने के पूर्व शैलेशी में खपाने योग्य कर्मों को समय समय के क्रम में व्यवस्थित (arrange) कर देते हैं । वह भी इस प्रकार से है : पहले समय में क्षपणोय ( खपाने योग्य । कर्मदलिकों से असंख्य गुना कर्मदलिक दूसरे समय के लिए और उससे भी असंख्य गुना कर्म दलिक तीसरे समय के लिए रखते हैं। इस तरह करते करते उत्तरोत्तर समयों में प्रत्येक समय के लिए असंख्य असंख्य गुने कर्मदलिकों की रचना होती है। इसे गुणश्रेणी कहते हैं । गुण याने उत्तरोत्तर असंख्य असंख्य गुने ( दलिक ) की श्रेणी याने पंक्ति। इस तरह असंख्य गुने कर्मदलिकों की गुण श्रेणी से
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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