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________________ ( २५५ ) एवं चिय वयजोगं निरु भइ कमेण कायजोगपि । तो सेलेसीब थिरो सैलेसी केवली होइ ।।७६॥ अर्थ:-इन विष आदि दृष्टांतों से वाग्योग का निरोध करना है तथा क्रमशः काय योग का भो (निरोध करता है । ) तब केवलज्ञानी मेरु की तरह स्थिर शैलेशी बन जाता है। जाता है। इसी तरह ( अप्रमाद और ध्यान से कच्चे बने हुए संसारी जीव में से मन रूपी पानी मशः कम होता जाता है अथवा ) अप्रमाद रूपो अग्नि से तप्त हो गये जीव रूपी बर्तन में से मन रूपी पानी क्रमशः कम होता जाता है । अर्थात् बहुत से विषयों का विचार करने वाला मन, विषयों के संकुचित होने से अल्प विषय के विचारों वाला बनता है। यहां मन को पानी की उपमा इसलिए दी गई कि योगियों का मन पानी की तरह अविकल है अर्थात् द्रवणशील (पिघले हुए बर्फ की तरह) बहने लायक होता हैं। इन दृष्टांतों से 'मन को अन्त में जिनवैद्य बिलकुल दूर कर देता हैं ।' ऐसा कहा है। इससे सूचित किया कि केवलज्ञानी महर्षि अन्त में मनोयोग का निरोध करते हैं । वचनयोग काययोग का निरोध अब बाकी के योगों के निरोध करने की विधि बताते हैं:विवेचन : पूर्व मे बताये हुए विष आदि दृष्टांतों से जिस तरह मनोयोग का निरोध किया गया, इसी तरह वचनयोग का निरोध करते हैं और क्रमश: काययोग का भी निरोध करते हैं । इस तरह सम्पूर्ण तीनों योगों का निरोध हो जाता है तब वह केवली भगवान मेरु (शैलेश) की तरह स्थिर आत्मप्रदेश वाला शैलेशी बन जाता हैं।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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