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________________ ( २४३ ) (७) आज तक जो धर्म सेवन किया है, उसकी धर्म की समझ को हानि होती है । (८) मेरे से मौ गुनी, हजार गुनी अरे लाख गुनी आपत्तियों में महापुरुषों ने क्रोध नहीं किया। महावीर प्रभु के कान में कीलें लगाई गई, सुकोशल मुनि को सिंहनी ने फाड़ खाया, गजसुकुमाल के सिर पर जलती हुई सिगड़ी रख दी गई, तब भी उ होंने लेशमात्र क्रोध नहीं किया । ( ९ ) अनन्त काल से अनेक अन्य भवों में क्रोध को तथा क्रोध की संज्ञा को पुष्ट करता रहा हूँ तो अब इस ऊंचे मानव भव में भो पुनः उसे ही पुष्ट करुंगा तो फिर उसका शोषण करना, उसका ह्रास या कमी करना आदि किस भव में करुंगा । एवं कब करुंगा ? (१०) क्रोध से चंडकौशिक के जीवसाधु की तरह भवों की परम्परा चलेगी वह कैसे निभाएगा ? (११) क्रोध से मन तानसी बनता है, सत्त्व खो कर निःसत्त्व बनता है, और तामस भाव का अन्य शुभ भावों पर खराब प्रभाव पड़ता है । साथ ही यहां सत्त्र की हानि होने पर महासुकृत के गुणस्थानक वृद्धि के तथा क्षपकश्रेणी-दायक परमसत्त्व जनित अपूर्वं करण महासमाधि के मूल स्वरूप (जड़ जैसे सत्त्व पर कुठाराघात होता है । (१२) क्रोध करने से औदयिक भाव याने मोह की आज्ञा का पालन पोषण होता है, तो क्रोध को रोकने से सुन्दर क्षायोपशमिक भाव याने जिनकी आज्ञा के पालन का लाभ मिलता है । ....' ..' आदि विचार करने से, इन विचारों को अन्नर्भावित करने से क्रोध के उदय को रोका जा सकता है । ( १३ । 'सामने वाले ने कठोर शब्द कहा है न ? गाली तो नहीं दी न ? गाली दी, तो दुसरा तो कुछ नहीं बिगाड़ा न ? बिगाड़ा भी है, तो प्रहार तो नहीं किया न ? प्रहार किया है तो मुझे मार नहीं डाला न यदि मार भी डालता है, तब भी मेरी धर्म की आंतर परिणति का परिणति का ) तो नाश कर ही नहीं सकता। वह तो मैं अपने ( या अंतर की धर्मं
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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