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________________ ( २३५ ) होंति कमविसुद्धाओ लेमाओ पीय-पम्ह-सुक्कायो । धम्मज्झाणोक्गयस्स तिब्ध - मंदाइ - भेयायो । ६६॥ अर्थ:-धर्मध्यान में रहे हुए को तीव्र, मन्द तथा मध्यम प्रकार की पीत पद्म व शुक्ल लेश्या होती है। वे क्रमशः अधिकाधिक विशुद्धि वाली होती जाती हैं। विवेचन : धर्मध्यान में रहे हुए को कृष्णादि छ लेश्या में से ऊपर की की पीत पद्म व शुक्ल तीन लेश्या होती है। धर्मध्यान शुभ ध्यान होने से स्वतः ही इसमें चित्त निर्मल होता है जिससे कृष्ण नील कापोत नामक तीनों निम्न व अशुभ लेश्या का अवकाश नहीं होता। पर उपर की पीत पद्म शुक्ल नामक शुभ लेश्या को ही अवकाश रहता है। ये लेश्याएं क्रमशः अधिक विशुद्धि वाली हैं। अर्थात् पीत लेश्या से पद्म लेश्या अधिक विशुद्ध और उससे भी शुक्ल शेश्या अधिक विशुद्ध होती है। उसमें अन्त्य लेश्या तीव्र, आद्य मन्द, और मध्यम लेश्या मध्यम प्रकार की होती है। ये प्रत्येक लेश्या भी एक ही मात्रा की नहीं होती, परन्तु चढती उतरती मात्रा वाली होती है। किसी को गीत लेश्या म-द मात्रा में होती है, तो किसी को मध्यम या किसी को तीव्र मात्रा में होती है। एक जीव में भो लेश्या मन्द मात्रा से शुरू होकर बढते बढ़ते मध्यम और तीव्र मात्रा में पहुँच जाती है, ऐसा भी होता है। धर्मध्यान मात्र प्राज्ञा, अपाय आदि का सुक्का चिंतन नहीं है पर भाव से आर्द्र चिंतन है; इससे शुभ लेश्या को यहां अवकाश है। इस लेश्या की मात्रा तीव्र मन्द आदि कही है इससे उसमें सामान्य रूप से जीव के तीव्र मन्दादि शुभ परिणामविशेष याने अध्यवसाय
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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