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________________ ( २२६ ) सभी एक साथ नष्ट नहीं हो सकते । परन्तु वह ध्यान उन्हें सातवें अपमत्त गुणस्थानक में नहीं, पर पीछे से ऊपर के गुणस्थानक में आया था। कषाय की अत्यन्त मंदता और सामर्थ्य योग के प्रभाव से उस प्रकार के ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हो जाने से, सूत्र से नहीं पर, अर्थ से पूर्व' शास्त्र का ज्ञान याने पूर्वशास्त्र में कथित सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान प्रकट हो जाता है। किन्तु वह सातवें से ऊपर जाने पर ही। इसीलिए यहां टीकाकार महर्षि स्पष्टता करते हैं कि 'पूर्वधर' विशेषण पूर्व गाथा के मात्र 'अप्रमादि' पद में ही जोड़ा जायगा। अर्थात् अप्रमादी पूर्वधर को शुक्ल ध्यान के पहले दो प्रकार होते हैं। याने अप्रमादी होने पर 'पूर्व' शास्त्र पढ़े हुए न हों तो वे मात्रा धर्मध्यान कर सकते हैं. शुक्ल ध्यान नहीं : यह शर्त क्षपक उपशामक निग्रन्थ के लिए नहीं है। वे पूर्व' शास्त्र न भी पढ़े हों तब भी शुक्ल ध्यान के अधिकारी हैं। (अलबत्ता ऊपर कहा है वैसे उन्हें 'पूर्व' के मात्र पदार्थ का ज्ञान हो जाता है ; तब भी वे 'पूर्वधर' अर्थात् १४ 'पूर्व' शास्त्र पढ़े हुए नहीं कहे जा सकते ।) अतः माषतुष जैसे मुनि को, निग्रन्थ क्षपक बनने पर, शुक्ल ध्यान ना जाता है। इस शुक्ल ध्यान के ध्याता प्रथम वज्रऋषभ नाराच' संघयण के धारक होते हैं। क्योंकि ऐसे उत्कृष्ट शरीर संघयण बल पर ही वैसा मनोबल और सूक्ष्म पदार्थ में चित्त की स्थिरता आ सकती है। यह विशेषण सामान्य तौर पर समझना चाहिये । क्योंकि उच्च ध्यान की योग्यता के लिए विशिष्टता इस पर न होकर 'पूर्व' धरता अप्रमाद तथा निग्रन्थता पर है। वैसे यह संघयण तो सातवीं नरक में जाने वाले अधम आत्मा को भी होता है। तब भी यह विशेषण रखकर यह सूचित किया कि इससे नीचे के संघयण वाले को शुक्ल ध्यान नहीं होता।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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