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________________ ( २०४ ) गोल भटकता रहेगा याने चक्कर काटता रहेगा । इसी तरह मोहनीय कर्म भी जीव को भ्रम में या चक्कर में चढ़ाता है, मिथ्यातत्त्व में फसाया रहता है । जीव हिंसादि पाप से सुख लेने जाता है पर दुःख मिलता है। अतः मानता है, कि यह तो अमुक कारण हुआ, अमुक बिगड़ा अतः दुःख आया। अतः अब बराबर ध्यान रख कर हिंसा आदि पाप करने दे । इस तरह हिंसादि पापों के चक्कर में चढ़ता है। फिर संसार समुद्र महा भयंकर है जैसे विराट समुद्र में भय उत्पन्न होता है वैसे ही विराट संसार के अंग अति भयकारक बनते हैं। फिर समुद्र में वायु से प्रेरित बड़ी बड़ी 'लहरें' या तरंगे उठती हैं, व उनकी परंपरा चलती है वसे ही संसार में ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से प्रेरित अज्ञान आदि के कारण संयोग वियोग का परंपरा चलती है। प्रश्न- किसी वस्तु के साथ संयोग और फिर उसके साथ वियोग तो दूसरे दूसरे कर्मों के आधीन है, तो यहां ज्ञानावरणीय कर्मोदय से प्रेरित कैसे कहा ? __उत्तर-संयोग वियोग होने मात्र से दुःखद नहीं होते, किन्तु उनके इष्ट अनिष्टता की बुद्धि होने से वे दुःखद बनते हैं और वह बुद्धि प्रज्ञान के कारण वैसी होती है। उदा० नीरस खानपान का संयोग हा, तो इसमें राग नहीं होने से भयंकर कर्म बंध स्क मया, 'यह बहुत लाभ हुआ' ऐसा न लगकर 'यह अनिष्ट संयोग हुआ' ऐसा अज्ञान से लगता है। ऐसे तो कितने ही अनिष्ट सयोग, इष्ट वियोग तथा इष्ट संयोग और अनिष्ट वियोग रूपी तरंगे अज्ञान रुपी वायु से चलते ही रहते हैं। पुन: यह संसार सागर कैसा है ? 'अणोरपार' अर्थात् जिसका अादि नहीं, अंत नही ऐसा अनादि अनंत है। आदि याने प्रारंभ इसलिए नहीं कि आदि मानने से यह भी मानना पड़ता है कि
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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