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________________ ( १६९ ) गगादि के स्वयं को नित्य होने वाले अनर्थों में उदाहरणवस्तु पर राग करने से (१) उसके बिगडने पर दुःख होता है । (२) राग के कारण खराब को अच्छा मानने का अज्ञान उत्पन्न होता है. (३) विषय-राग के कारण देव-गुरु-धर्म पर ऐसा राग उत्पन्न नहीं होता है और (४) जिस पर राग है उसके बारे में कभी कभी दूसरों की टीका सुनकर द्वेष आदि उत्पन्न होता है । इस तरह ( १ ) द्वष के तथा ईर्ष्या के कितने ही अनर्थ उत्पन्न होते हैं । (२) अभिमान करने के पीछे भी सहन करना या हारना कहां नहीं होता है ? इसी तरह (३) अविरति याने पाप की छुट के कारण उन पापों में अतिरेक या अधिकता हो जाती है और बाद में सहन करना पड़त है। उदाहरण-मिठाई की अवरति होने से वह ज्यादा खा जाने से पेट चढ़ता है या दुःखता है ऐसा होता है। इस तरह जगत में चलते हुए अनर्थों पर दृष्टि करें तो दिखेगा कि उन सब की जड़ में ये रागादि ही कारणस्वरूप हैं। इस प्रकार का चिंतन करते हुए 'अपायविचय' धर्मध्यान होता है। उसका महान लाभ यह है कि इससे आर्तध्यान रुकता है। जहां आर्तध्यान होता हुआ लगे वहां अपायविचय या विपाक विचय का प्रारंभ कर देना चाहिए। ... ऐसी रागादि क्रियाओं के अनर्थ का चिंतन करने वाला कैसा होता है इस सम्बन्धी कहते हैं 'वज्जपरिवज्जी' याने वज्ज अर्थात् वय॑ त्याज्य या अकृत्य प्रमाद, उसका परिवर्जी याने त्यागी हो। अर्थात् अप्रमत्त हो। लेशमात्र भी प्रमाद का सेवी न हो वह 'अपायविचय' धर्मध्यान बराबर कर सकता है। प्रमत्त हो, प्रमादी
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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