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________________ ( १६७ ) अर्थः -- हिंसादि के पाप की अविरति ( छुट ) से पापी जीव लोक में निंदापात्र ऐसे स्वपुत्रघात आदि दोषों में फंसते हैं। (प्रतिज्ञा से हिमादि का त्याग नहीं किया, उससे वैसा मौका आ जाने पर अपने पुत्र आदि का भी घात करने जैसे पाप का आचरण करते हैं। चुलनी ने अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को लाख के घर में जिन्दा जला देने का दाव लगाया था।) यह तो इस जीवन में अनर्थ हुए। आश्रव रूप क्रियाओं से उत्पन्न कर्म वश परलोक में भी जीवों को नरक आदि गतियों में भटकते हुए दीर्घ काल तक अनर्थ होता रहता है। यहां मूल गाथा ५०वीं में 'आसवादि' शब्द से आश्रव के साथ 'आदि' शब्द रखा है, यह न्ही राग द्वष, कषाय और मिथ्यात्व अविरति आश्रव के अवांतर अनेक भेदों का सूचक है । यहां अन्य आचार्य कहते हैं कि यह 'आदि' पद प्रकृतिबंध, स्थितिबध, अनुभागबध और प्रदेशबंध का ज्ञापक है। इसलिए इन दो अपेक्षाओं से रागादि के अपाय सोचने में रागादि के अवांतर अनेकानेक प्रकारों के तथा रागादि के प्रकृतिबंध, स्थितिबंध आदि के अनर्थों का भी चिंतन किया जा सकता है । ५ प्रकार की क्रिया 'किरियासु' याने कायिकी, अधिक रणिकी, प्रादेशिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया के भा अनर्थों का चिंतन करे। कहा है किः - किरियासु वट्टमाण काईयमाईसु दुक्खिया जीवा । इह चेव य परलो संसार-पवड्ढया भणिया ।। अर्थ:-कायिकी आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हुए जीव इस
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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