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________________ ( १४६ ) दूसरे किसी धर्म में ऐसी नय-व्यवस्था नहीं है। अलबत्ता प्रमाण-व्यवस्था है पर इससे क्या ? वस्तु का बोध तो प्रमाण तथा नय दोनों से होता है। इसमें प्रमाण से तो सकल अश में, समस्त भाव से होता है, परन्तु विकलांश या एकांश से नहीं। इस के लिए तो नय की जरूरत होती है। तब ऐसे नयघटित जिनवचन की कैसी लिहारी! कैसी प्रधानार्थता! महार्थता! महत्थ का यह एक अर्थ हुआ। (ii) 'महत्थ' याने महत्स्थ भी कहा जा सकता है। महत्स्था याने महान सम्यग् दृष्टि भव्य आत्माओं में रहा हुआ। 'अहो ! जिन वचन कैसा विश्व के उत्तम प्रधान पुरुषों में रहा हुआ है !' जिस की दृष्टि में मिथ्यात्व है, मार्गानुसारिता नहीं है. वह कोई प्रधान पुरुष नहीं है। (iii) महत्थ याने महास्थ ऐसा अर्थ भी होता है। 'महा' याने पूजा । जिनवचन पूजा में रहा हुआ याने पूजा पात्र है। कहा है 'ज्ञान (जिनवचन) सर्व वैमानिक, भवनपति देव, मनुष्य तथा व्यंतरज्योतिषी देवों से पूजित है, क्यों कि जिनवचन के आधार पर आगम रचयिता गणधर भगवान पर देवता भी वासक्षेप फेंकते हैं, उछालते हैं।' आगम के जिनवचन की यह कैसी महिमा ! यों जिनवचन कैसा महत्थ ! __(६) महानुभावः--'अहो ! जिनाज्ञा कैसा महान अनुभाव, सामर्थ्य या प्रभाव वाली है !' 'महान' याने 'प्रधान या २अधिक । जिनवचन के सामर्थ्य की प्रधानता इस तरह है कि जिनवचन के ज्ञाता चौदह पूर्वधर महर्षि सर्व लब्धि से सम्पन्न हो जाते हैं। इतना ऊंचा प्रधान सामर्थ्य जिनवचन के अलावा दूसरे किस वचन का है कि जिससे सर्व लब्धियों की शक्ति उत्पन्न हो ? पुन: (२) सामर्थ्य की विशालता अधिकता इस तरह से है कि
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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