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________________ ( १४३ ) होती। क्यों कि जिनवचन हजारों हेतुओं से परिवरित है। अतः प्रत्येक प्रतिपादन पर नये नये हेतु जानने को मिलें तो रस (आनंद) कैसे खतम हो ? (ii) जिनवचन पथ्य है, आरोग्यानुकूल है । कहा है : 'नारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देवगण के संसार सम्बन्धी सर्व रोगों की एकमात्र औषधि जिन वचन है, और वह फलस्वरूप मोक्ष के अक्षय सुख को दे वाली है। ., (iii) जिनबचन सजीव है याने उसमें युक्ति संगति समर्थ होने से सार्थक है, यथार्थ है परन्तु अयथार्थ नहीं है, मृत निर्जीव नहीं है । जैसे 'बड़े राजा के हाथी इतने ज्यादा थे कि उन हाथियों के गंडस्थल में से स्रवित मदबिन्दुओं से ऐसी नदी बही कि उसके दुश्मन के हाथी घोड़े रथ आदि की सेना उसमें बह गई।' यह वचन युक्तियुक्त नहीं है अत: वह मृत निर्जीव वचन कहा जायगा। (७) अजिताः 'अहो! जिनाज्ञा कैसी इतर प्रवचनों के वचन से अपराजित है।' कहा है: जीवाइवत्थु चिन्तणकोसल्ल गुणेणऽणण्णसहिएणं । सेसवयणेहिं अजियं जिणिंदवयणं महाविसयं ॥ . अर्थः -दूसरे के साथ की गई तुलना का उल्लंघन करने वाला महाविषयों वाला जिनेन्द्र वचन जीवादि वस्तु का विचार करने की कुशलता के गुण से बाकी के ( शास्त्र ) वचनों से अजित है। (अन्य शास्त्रों से अजिता) जिनवचन (१) सर्वज्ञ वचन होने से, (२) अनेकान्त दृष्टि से वस्तु के प्रतिपादक होने से वह जीव अजीव आदि पदार्थों का विचार कुशलता से कर सकता है। यह ताकत असर्वज्ञ एकान्तदृष्टि से सोचे हुए या कहे हुए वचनों में नहीं हो सकती।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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