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________________ (१४० अर्थ : कोई भी जोव यदि पहले स्वभाव से कर तथा रागा. विक्य से मूछित भी हुए हों, तब भी जब वे जिनवचन से मन को भावित करते हैं, तो वे तीनों जगत के लिए सुखकारक बनते हैं । _ 'भावित' याने जैसे कस्तूरी से बंधा हुआ कपड़ा उसके प्रत्येक अंश में, प्रत्येक तंतु में कस्तूरी की सुवास से वासित हो जाता है, वैसे जिनाज्ञा दिल में रख कर उस पर के अनन्य अतिशय बहमान से आत्मा के प्रत्येक प्रदेश को वासित कर दिया जाय । इस तरह भावित होने के बाद तो पूर्वं को क रता तथा राग आदि की परवश भी पलायन हो जाती है, भाग जाती है। शास्त्र में से सुनने को मिलता है कि चिलातोपुत्र आदि बहुत से पूर्व में स्वभाव से कर आदि थे तब भी जिनवचन से वासित होने पर उससे भावित होते ही जगत के जीव मात्र को सुखदायक याने अभयदाता बन गये। चिलातीपुत्र अतिराग के कारण सेठ की पुत्री को उठा कर दौड़ा और उसका पाछा पकड़ने वाले उसके पिता के प्रति क्र रता के कारण बिचारी लड़की का सिर काट कर वह आगे बढ़ा। परन्तु आगे 'उपशम विवेक संवर' का जिनवचन एक मुनि ने उसे सुनाया। इस वचन को उसने अपने दिल में खूब ही गहरा उतारा, उस वचन से वह भावित हो गया और तुरन्त ही वहीं सर्व हिंसादि पापों का त्याग करके वह कायोत्सर्ग ध्यान से खड़ा रहा । उसके शरीर पर पड़े हुए खून से खिंच कर आई हुई हजारों चींटीयों ने उसके शरीर को काट कर छलनी बना दिया। तब भी जिनवचन के रंग से उसने उन जीवों को कुछ भी नहीं किया तो वह भी मर कर सद्गति के सुख का हिस्सेदार बना। इस तरह से जिनाज्ञा की भूत भावना का चिंतन करे। (५) अनय॑ : जिनवचन की अनाता याने अमूल्यता का चिंतन करे कि 'अरे! यह जिनवचन कितना अमूल्य हैं !'
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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