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________________ ( १२४ ) सव्वाणु वट्टमाणा मुणो जं देसकाल चेट्ठासु । वर केवलाइलाभं पत्ता बहुसो समिय पाव ॥४०॥ अर्थः-देश काल आसन का नियम नहीं है क्यों कि मुनि सभी देश काल या शरीर अवस्था में रह कर पाप का शमान करके अनेक बार मुख्य केवल ज्ञानादि को प्राप्त कर चुके हैं। वह अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि जिससे थकान या विह्वलता होने से चित्त उसमें जाकर ध्यानभंग जो होता है, वह न हो। यदि उस अवस्था में बीच में अंगोपांग घुमाने पड़ते हों, तो उसका अर्थ यह हुआ कि वहां थकान का अनुभव हुआ। इससे ध्यान में से चित्त डिगता है, ध्यान स्खलित होता है। अतः मुख्य बात यह है कि ध्यान अस्खलित चल सके, ऐसा कोई भी स्थिर आसन याने स्थिर रहने वाली शरीर की अवस्था ध्यान के लिए योग्य आसन है। फिर चाहे वह खड़े खड़े काउस्सग्ग (पालखी) की अवस्था सेहो, बैठे बैठे वीरासन, पद्मासन या पर्यंकासन से हो अथवा जीवन के अन्तिम काल में पादपोपगमन अनशन में जैसे सोने की अवस्था रखी जाती है, वेसे लम्बे होकर या सिकुड़ कर सोते हुए आसन से भी किया जा सकता है। अत्यन्त बीमार तथा शय्यावश हो तो क्या करे ? वह सोते सोते भी ध्यान कर सकता है। परन्तु तन्दुरुस्त होकर वैसा करे तो प्रमाद, निद्रा या झोके उसे आ जावेंगे। 'ध्यान अस्खलित व अखंड' का अर्थ यही कि जिसमें बीच में कोई विक्षेप नहीं आवे याने दूसरे विचारों में मन न खिचे अथवा प्रमाद या निद्रा भी नहीं आवे। दूसरे तो ध्यान के लिए गुफा आदि स्थान ही, दिन या रात्रि का अमुक निश्चित समय तथा निश्चित पद्मासन आदि जरूरी बताते
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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