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________________ ( १११ ) लगे कि मैंने समझ कर साधना पकड़ी है, अतः अस्थिमज्जा की तरह इसमें मैं रंग गया हूं। इसमें पीछे हटने की बात ही क्या ? इस तरह सत्त्व अच्छी तरह विकसित हुआ हो तो कायरता के विचार ही नहीं आवे । इस तरह आत्मविश्वास और सत्त्व से भय को हटा कर निर्भयता को खड़ा करना चाहिये। भय से जो ध्यान भंग होता हो, वह इससे रुकेगा । ε. निराशंसता- इस लोक व परलोक के विषयसुख सम्मान आदि की आशंसा आकांक्षा नहीं होनी चाहिये । साधना के फलस्वरूप ऐसी वस्तु की इच्छा नहीं की जानी चाहिये । प्रश्न पूर्वं कथित निस्संगभाव का अभ्यास किया हो फिर ऐसी आशंसा होने का अवकाश ही कहां है कि 'निराशंसभाव' गुण का अलग से अभ्यास करना बड़े ? उत्तर - निस्सगभाव से जगत के पदार्थों के प्रति राग द्वेष आसक्ति न होने देने का अभ्यास तो किया, परन्तु अनादि से अभ्यस्त रागादि के संस्कार वश कभी कहीं नया देखने को मिलने पर आशंसा उठ खड़ी होने की सम्भावना है। जैसे ब्रह्मदत्त के जीव ने पूर्व भव में मुनि के रूप में अच्छा निस्संग भाव तो खड़ा किया था पर चक्रवर्ती के वन्दन करने आने पर उसकी पटरानी स्त्रीरत्न की मुलायम केशराशि मुनि को वन्दन करते हुए नीचे गिरी और उसका मुनि के पैरों से रपर्श हो गया। ध्यानस्थ मुनि की नीची नजर उस चमकती हुई केशराशि पर गिरने से तथा उसका पैरों से स्पर्श होते ही झनझनाहट पैदा हुई । मन लुब्ध बना, निदान किया । 'अरे, ऐसी मुलायम केशराशि वाली स्त्री कितनी रमणीय होगी ! ऐसी स्त्री मिलने पर साथ में वैभव भी कितना प्राप्त हो ? बस, इस कठोर तप संयम का फल हो तो ऐसा वैभव विलास मिलो।' यह क्या
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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