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________________ ( १०३ ) नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं । चारित भावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ||३३|| अर्थः- चारित्र भावना से (१) नये कर्मों का अग्रहण (२) पुराने कर्मों की निर्जगा और ( 3 ) नये शुभ का ग्रहण तथा ( ४ ) ध्यान सरलता से मिलता है । I के कारणस्वरूप क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि रहित होने से झूठ बोल ही नहीं सकते। साथ ही सर्वज्ञ होने से अतीन्द्रिय सूक्ष्म कर्म आदि को साक्षात् देखकर उसके बारे में कहने वाले हैं । अतः उनका वचन सम्पूर्ण रूप से मान्य करना चाहिये । 'जिनेश्वर ने कहा वही सच्चा है. जिनेश्वर ने कहा वह सच्चा ही है ।' इस तरह से वह सत्य ही है ऐसा माने (अस्ति ) अतः वह आस्तिक्य ही कहलाता है । इस तरह शंका आदि ५ दोष हटाकर प्रश्रम, स्थैर्यादि ५ भूषण और प्रशम संवेग. दि ५ लक्षण प्राप्त करना चाहिये । असर्वज्ञ के तत्त्व में जरा भी मूर्च्छित (मोहित) नहीं होना चाहिये, यह दर्शन भावना कहलाती है । इससे धर्मध्यान की योग्यता आती है, क्योंकि शंका, कांक्षा आदि तथा अश्रम याने शास्त्र अपरिचय आदि तथा अ- प्रशम याने पर अहित चिंतन आदि धर्म ध्यान के विरोधी तत्त्व हैं। इन्हें इस तरह दूर हटाया जाता है, तब धर्म ध्यान को स्वाभाविक ही अवकाश प्राप्त हो जाता है । ३ चारित्र भावना अब चारित्र भावना का स्वरूप तथा उसके गुण बताते हैं :विवेचन : चारित्र भावना यानी चारित्र का अभ्यास। जिससे अनिन्दित रूप में चरे- विचरे, उसका नाम चारित्र है । लोक तथा ज्ञानी की
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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