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________________ १२ इन कषाय और पाप का उद्भव स्थान है मन, वचन, काया की चंचलता । चंचलता कर्म परमाणुओं को आकृष्ट करती है और कषाय उनको टिकाये रखते हैं । कषाय की तीव्रता और मन्दता पर ही उनकी स्थिति का आधार है । चंचलता और कषायों को रोकने-कम करने और पतले बनाने के लिये साधना का मार्ग निर्दिष्ट है । समभाव में रहें स्थिर रहें - यह साधना मार्ग है । पहले चंचलता कम करें तब ही साधना का मार्ग खुल सकता है। उसके लिये कायोत्सर्ग बताया है । कायोत्सर्ग से चंचलता क्रमशः कम होती जाती है और पूर्ण रूप से नष्ट भी हो जाती है । मन की चंचलता दूर करने के लिये निर्विचार और निर्विकल्प स्थिति में रहना, वचन की चंचलता हटाने के लिये मौन का अवलंबन करना और काया की चंचलता मिटाने के लिये प्राणायाम - श्वास का नियमन करें। जब वाणी की चंचलता कम होती जायगी तब मन की चंचलता और काया की चंचलता कम होती जायगी और आते हुए कर्म परमाणु रुक जायेंगे | यह तो एक प्रक्रियात्मक उदाहरण है। परन्तु हरेक प्रकार की वृत्तिओं को वश करने के लिये भिन्न भिन्न प्रक्रिया
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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