SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४ ) इसी शिष्टजनाचरित वस्तुस्थिति को लक्ष्य में रखकर सुविहितसूरिकुलतिलक, आबालब्रह्मचारी, क्रियाशुद्धधुपकारक, सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, जङ्गमयुग प्रधान, प्रातः स्मरणीय, परमयोगिराज - जगत्पूज्य - गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने भिन्न भिन्न विषयों के श्रीअभिधानराजेन्द्रकोशादि अनेक ग्रन्थ बनाये हैं, जो भारतवर्षीय विद्वानों में प्रशंसा की कसोटी पर चढ़ चुके हैं । प्रस्तुत ' श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थान। चतुष्पदी ' ग्रन्थ उन्हीं में से एक है। इसमें वर्त्तमानकालीन ऋषभादि चोवीस जिनेश्वरों के अलग अलग एकसो पिचहत्तर ( १७५) और सीमन्धरादि वीस विहरमान तीर्थङ्करों के बारह बारह स्थान सन्दर्भित हैं, जो हरएक जैन को मनन करने, जानने और सीखने लायक हैं । तपागच्छीय श्री सोमतिलकसूरि-रचित 'सत्तरिसयठाणापगरण ( सप्ततिशतस्थानप्रकरण ) ' नामका प्रन्थ है, जो ३५९ प्राकृत गाथामय है और उसकी राजसूरगच्छीय-श्रीदेवविजयजी रचित अतिसरल संस्कृत वृत्ति भी है। प्रस्तुत चतुष्पदी प्रायः उसीके आधार पर रची गई है। परन्तु चतुष्पदीकारने पांच स्थान इतर जैन प्रन्थों से उद्धृत कर इसमें अधिक रक्खे हैं 1 चतुष्पदी के आरंभ में चतुष्पदीकारने इसका गुजराती भाषा में सारांश भी लिख दिया है, जिससे सीखने और वांचनेवालों को इसके समझने में किसी प्रकार की संदिग्धता नहीं रह सकती। इसके सारांश में यंत्रों की गोठवण
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy