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सारांश ४ उल्लास ] पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. १०४ तीर्थप्रवृत्ति—
एक तीर्थंकरथी ज्यां सुधी बीजा तीर्थंकरनो तीर्थ नथाय त्यां सुधी पूर्व तीर्थंकरनो तीर्थ कायम रहे. अजितनाथनो तीर्थ प्रवत्यों नहीं त्यां सुधी ऋषभदेवनो तीर्थ चालु रह्यो. एवीज रीते दरेक जिनेश्वरनो तीर्थप्रवृत्ति काल समजवुं. जैनागम अने गुरुगमथी जणाय छे के श्रीवीर - प्रभुनो तीर्थ दुष्पमारक ( २१००० वर्ष ) पर्यन्त रहेशे. १०५ तीर्थविच्छेदकाल —
सुविधिनाथथी धर्मनाथ लगण पल्योपमना चोथिया एक, एक, ऋण, एक, ऋण, एक, एक भाग गणतां तीर्थविच्छेद कील थाय छे. सर्व तीर्थविच्छेदना चोथिया अग्यार भाग ( पोणा त्रण पल्योपम ) जाणवा. केटलाक आचार्य अग्यार पल्योपम पूरा ग्रहण करे छे. तत्त्व केवलगम्य जाणवुं. सुविधिनाथथी धर्मनाथ पर्यन्त सात जिनेश्वरोनाज तीर्थमां विच्छेद काल होय छे, शेषना तीर्थमां नथी. जिनेश्वरोना तीर्थप्रवृत्तिकालना अन्ते असंयति, अविरति, अप्रत्याख्यानी, अने स्वार्थलोलुपीओनी प्रवृत्ति
१ - सुविधिनाथनो पाव पल्योपम, शीतलनाथनो पाव पल्योपम, श्रेयांसनो पोण पल्योपम, वासुपूज्यनो पाव पल्योपम, विमलनाथनो पोण पल्योपम, अनन्तनाथनो पाव पल्योपम अने धर्मनाथनो पाव पल्योपमानो तीर्थविच्छेदकाल समजवुं.