SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [ चतुर्थ तज पण आश्रव इंदि पण, निग्रह चार कषाय । जीते त्रिदंड विरति कर, संयम सतरे थाय ॥ ४२५ ॥ भू दग अगनि पवन वण, बि ति चउ पणिंदि प्रेक्षोत्प्रेक्ष प्रमार्जना, परिठवण अरु जीव ॥ अजीव । ४२६ ॥ मन वच काया संवरे, ए पण सतरे भेद | संयम सहु जिनतीर्थ में, पाले न लावे खेद ॥ ४२७ ॥ १४४ - १४५ धर्मप्ररूपणा अने वस्त्रवर्ण— दान शील तप भावना, धर्मना चार प्रकार । श्रुत चारित्र दो भेदसे, सहु जिन भाषे सार ॥ ४२८ ॥ प्रथम चरम जिनशासने, ओघनियुक्ति प्रमाण । श्वेत वस्त्रधर मुनिवरा, शेषने वर्ण न मान ॥ ४२९ ॥ द्वार सैंतालिस शोभतुं, पूर्ण चतुर्थोल्लास । निर्दोषसुं वसनवर्ण लग, जिनपति स्थान प्रकाश ॥ ४३०॥ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छावतंसाऽऽबालब्रह्मचारि - विशुद्धतमचारित्राऽऽरामविहारि—कलिकालसर्वज्ञकल्प- जङ्गमयुग - प्रधान-शासनसम्राट् - परमयोगिराज - जगत्पूज्य - गुरुदेव - प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचितायां पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पद्यां सप्तचत्वारिंशत्स्थानवर्णनो नाम चतुर्थोल्लासः । w
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy