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________________ ११८ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [चतुर्थ श्रेष्टी सेनापति, निज निज विभव प्रमाणे । जिन आगम सुणिने, दिये वधाई तिण टाणे ॥ नियुक्त पुरुषने तथा, अनियुक्तने देवे । आनंद पामी सो पिण, प्रीतिए लेवे ॥ ३३५ ॥ ११२ जिनेश्वरोना अधिष्ठायक यक्ष-- जिनराज शासन भक्ति कारक, यक्षनायक जे थया । तेहना क्रम नाम भापुं, आदिजिन से जे कह्या ॥ गोमुख महायक्ष त्रिमुख यक्षेश, तुंबरु कुसुमो तथा । मातंग विजयाजित ब्रह्म मनुजेश्वर कुमरो यथा ॥३३६॥ षण्मुख पाताल किन्नर वलि, गंधर्व गरुड सुजानिये । यक्षेन्द्र कुबेर बरुण भृकुटि, गोमेध मन आनिये ॥ पार्श्वयक्ष मातंग अपर ब्रह्मशांति अभिधानिये । चोवीस जिनना तीर्थरक्षक, सूरिराजेन्द्र वखानिये॥३३७ ११३ जिनेश्वरोनी अधिष्ठायिका देवी जैनशासन सुरी चउवीस, मात चक्रेश्वरी छे गुण ईश, अजिता दुरितारी जगीस । काली महाकाली अच्चुया, शांता ज्वाला ने सुतारा असोया, श्रीवत्सा पण होया ॥ प्रवरा विजया अंकुशा कहिये, प्रज्ञप्ती निर्वाणी अच्युतालहिये, धरणी वैरुट्या गहिये । दत्ता गंधारी अंबा जाणो, पद्मावती सिद्धायिका माणो, ऋषभादि क्रमसे वखाणो॥ ३३८ ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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