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________________ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [ तृतीय ११० ९५ - ९६ ज्ञानतरु अने तेनो मान न्यग्रोध ने सप्तपर्ण, शाल प्रियाल प्रियंगु । छत्राभ सिरीष नाग रु, मल्लि जाणो पिलंखु ॥ २८४ ॥ तिन्दुक पाटलिका तरु, जम्बु अश्वत्थ दधिपूर्ण | नन्दी तिलक आम्रवृक्ष, अशोक चंपक वर्ण ॥ २८५ ॥ वकुल वेतस धातिकी, सालवृक्ष जिनवीर । चोवीस जिनना क्रम थकि, ज्ञानतरू मति धीर ॥ २८६ ॥ चैत्यवृक्षोपरि वीरने, सालतरु हुवे जेह । धनुष ग्यारेनो कह्यो, प्रसंगे समझो एह ज्ञानतरू ऊंचो हुवे, जे जिनतनुनो मान । तेथी बारगुणो अधिक, सहु जिनवर ने जान || २८८ ॥ ॥ २८७ ॥ ९७-९८ केवलज्ञाननो समय अने तप ॥ २८९ ॥ पूर्वाह्ने प्रथम प्रहर में, तेवीस जिनने नाण । पश्चिम प्रहरे वीरने, उदयो केवलनाण ऋषभ मल्लि नेमि पार्श्वने, अट्टम तप में नाण । चउत्थतपे वासुपूज्यने, केवल थयो प्रमाण ॥ २९० ॥ शेष जिनवर उन्नीसने, केवल छड में होय । सूरिराजेन्द्रे भाषियो, धारो दिलमें सोय ॥ २९९ ॥ द्वार तियाली सोहतुं, पूर्ण तृतीयोल्लास । विवाहसुं ज्ञानतप लगण, जिनपति स्थान प्रकाश ॥ २९२॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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