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________________ ९६ पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. ४९-५० जिनेश्वरोनुं रूप अने बल सुरवर सगलाई रचे, रूप अंगुष्ठ प्रमाण । जिनपद अंगुष्ठ आगले, लेहाला सम जाण ॥। १८१ ॥ [ द्वितीय ॥ १८२ ॥ तीर्थङ्करना रूपथी, क्रमते रूप छे हीन । गणधर आंहारिक वली, अनुत्तर ग्रैवेकीनें कॅल्पवासि जोइसदेर्वं, भवनपति वितर देव । चक्री हरि बैल मंडलिक, एकेक हीन गणेव ।। १८३ ॥ ए सहुथी रूपऋद्धि अधिक, अनंत गुणि जिन होय । सूरिराजेन्द्र कहे इस्यो, तामें फरक न कोय ॥ १८४ ॥ तुलना जिनवर बलतणी, सहुथी अधिक विचार | राजासे बलदेवनो, वमणो हरि संभार ।। १८५ ॥ कोटिशिला लीला करी, उपाडे केशव जेह | दुगुन बल चक्री भयो, अनंतबली जिन लेह ॥ १५६ ॥ इन्द्र संशयकुं छेदवा, वीर मेरु कंपाय । हेतु विन बल नवि करे, क्षमावंत कहिवाय ॥ ९८७ ॥ ५१ जिनेश्वरोनो उत्सेधांगुलथी शरीरमान पांचसो धनुष देहमान, ऋषभजिनेश्वर जाण । अजितथी सुविधिजिन लगे, पचास धनु हीयमाण ॥ १८८॥ जाव शतधनु सुविधिनो, तेमां दश दश हीन । जिम अनंत पचास धनुष, पण पण घटे प्रवीन ॥ १८९ ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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