SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४५६) दादिकं विंशत्या शतैश्चतुस्त्रिंशैर्योजनस्य दिसप्ततितमैरे. कोनत्रिंशद्भागैरधिकं बोधव्यं. ।। श्रेणिः परिरयाख्यैव-मेतयोरेतयोर्दयोः ॥ न तु सूचीश्रेणिरत्र । वेत्ति तत्वं तु केवली ॥ ६५ ॥ योगशा. स्त्रचतुर्थप्रकाशवृत्तावप्युक्तं मानुषोत्तरात्परतः पंचाशता योजनसहौः परस्परमंतरिताश्चंद्रांतरिताः सूर्याः, सूर्यातरि ताश्चंद्रा मनुष्यक्षेत्रीयचंद्रसूर्यप्रमाणा यथोत्तरं क्षेत्रपरिधर्व च्या संख्येया वर्धमानाः शुगलेश्या ग्रहनदात्रतारापरिवारा थी बीजा चंद्रनुं अंतर बे लाख जोजन- . ॥२॥ ही 'बे लाख ' एटले बे हजार चोत्रीस पूर्णाक नंग. पत्रीस बहोतेरांश जोजन तेपर अधिक जाणवा. एवीरीते तेज बन्नेनी परिरयनामनी श्रेणि बे, पण सूचीश्रेणि नथी, बाकी यहीं खरी हकिकत केवली म. हाराज जाणे. ॥ ६५ ॥ योगशास्त्रना चोथा प्रकाशनी टीकामां पण कर्जा ने के–मानुषोत्तरपर्वतथी पागळ प. चास हजार जोजने परस्पर अंतरखाळा एटले चंडोथी अंतरित थयेला सूर्यो, तथा सूर्योथी अंतरित थयेला चं. जो मनुष्यक्षेत्रमाना चंद्रसूर्योजेवमा अनुक्रमे क्षेत्रना घे. रावानी वृद्धिथी संख्यावड़े वधताथका शुभलेश्यावाळा त
SR No.022113
Book TitleLok Prakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Shravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1916
Total Pages536
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy