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________________ मइनाणाई सुलद्धी, सुपत्तदाणं समाहिमरणत्तं; चारणदुगमहुसिप्पय, खीरासव खीणठाणत्तं ॥४॥ __अर्थ:-पतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानादिकनी लब्धि, सुपात्रदान, समाधिमरण, विद्याचारण अने जंघाचारणनी लब्धि, मधुसपिलब्धि, क्षिरावलब्धि, अक्षिणमाणसी लब्धि पण न पामे ॥ ४ ॥ तिथ्थयर तिथ्थपडिमा, तणुपरिभोगाइ कारणेवि पुणो; पुढवाइय भावंमि वि, अभवजीवहिं नो पत्तं ॥५॥ अर्थः-तीर्थकर तथा तीर्थकरनी प्रतिमाना शरीरना परिभोगादि कारणमा पण अभव्य जीवो पृथ्वीकायना भावोने न पामे. ॥५॥ चउदस रयणत्तंपि, पत्तं न पुणो विमाणसामित्तं ॥ सम्मत्तनाणसंयम, तवाइ भावा न भावदुगे॥६॥ अर्थः-चौद रत्नपणुं अने वली विमान स्वामीपणुं न पामे. वली सम्यक्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अने तवादि | अणुभवजुत्ता भत्ती, जिणाणसाहम्मियाण वच्छलं; नय साहेइ अभवो, संविगत्तं न सुप्पख्खं ॥७॥ बाह्याभ्यंतर ए पे भाव पण न पामे.॥६॥
SR No.022111
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalabhai Kakalbhai
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1915
Total Pages112
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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