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________________ भावञ्चिय परमत्थो, भावो धम्मस्स साहगो भणिओ; सम्मत्तस्स वि बीअं, भावच्चिय बिति जगगुरुणो॥१९॥ अर्थः-भावज खरो परमार्थ छे, भावन धर्मनो साधक-मेळवी आपनार छे अने भावज निश्चयने उत्पन्न करी आपनार छे; एम त्रिभुवन गुरु श्री तीर्थ करो कहे थे. ॥ १९ ॥ किं बहुणा भणिएणं. तत्तं निसुणेह भो! महासत्ता! मुख्खसुहबीयभूओ, जीवाण सुहावहो भावो ॥२०॥ अर्थः-घj घणुं भुं कहीए ? हे सत्त्ववन महाशयो ! हुं तमीने तत्व निचोळरुप वचन कहुं छु ते तमे सावधानपणे सांभळो-मोक्ष सुखना बीज रुप जीवोने सुखकारी भावज छे अर्थात् म् भाव योगेज जीवो मोक्ष सुष्व मेळवी शके छे. ॥२०॥ इय दाणसीलतवभावणाओ, जो कुणइ सत्तिभत्तिपरो; देविंदविंदमहिअं, अइरा सो लहइ सिद्धिसुहं ॥ २१॥ अर्थः-आ दान शील तप अने भावनाओने भव्यात्मा शक्ति अने भक्तिना उल्लास योगे करे ते महाशय इंद्रोना समूह बढे पूजित एवं अक्षय मोक्ष मुख अल्पकाळमा मेळवी शके छे. आकुलकमा छेवटे ग्रंथकारे पोतानुं देवेन्द्रमूरि एवं नाम गर्भितपणे सूचव्युंजणाय से. रक्त महाशयनां अतिहितकर वचनोने खरा भावथी आदरवां ए पापणुं खास कर्तव्य छे. ॥२१॥
SR No.022111
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalabhai Kakalbhai
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1915
Total Pages112
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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