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________________ लीलाइ दलइ दप्पं, पालंतो निम्मलं सीलं ॥१९॥ अर्थ:-निर्मल शीलनुं रक्षण करनार भव्यात्मा, पैनाल, भूत राक्षस, केसरीसिंह, चित्रा, हाथी भने सर्पना दर्द | (अहंकार ) ने लोला मात्रमा (जोत जोनामा) दळी नाखे छे. ॥ १९ ॥ जे केइ कम्ममुक्का, सिद्धा सिझंति सिझिहिंति तहा; सव्वेसिंतेसिंबलं,विसालसीलस्सदुल्ललिअं(माहप्पं)॥२०॥ अर्थ:-जे कोइ महाशयो सर्व कर्मथी मुक्त थइने सिद्धि पदने पाम्या के. वर्तमानकाळमां (महाविदेहादिक क्षेत्रपा) सिद्धि पदने पामे छे अने भविष्यकाळमा आ भरतादिक क्षेत्रमा पण सिद्धिपदने पामशे ते आ पवित्र शीलनोन प्रभार जाणवो. उत्तम शील चारित्र (यथाख्यान चारित्र) नी माप्ति करनारनी अवश मिद्धि थापन के. शोल-चारित्रनं भावं उत्तम माहात्म्य शास्त्रकारोए जणावे टु छे, ते निघामा लइ भव्यजनोए (सहु भाइ मेनोए निर्मळ शीर--रत्ननुं परिपाळण करवा सदोचन (हमेशा उद्यमवाळा ) रहेवं चिन के. ॥ २० ॥ इति शील कुलकं. ___ अथ श्रीतपःकुलकम्. सो जयउ जुगाई जिणो, जस्संसे सोहए जडामऊडो; तवझाणग्गिपज्जलिअ-कम्मिंधण धूमलहरिव[पंतिब्व] १२२ -
SR No.022111
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalabhai Kakalbhai
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1915
Total Pages112
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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