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________________ संविज्ञसाधु योग्यं नियमकुलकम्. । भुवणिक्कपइवसमं, वीरं नियगुरुपए अ नमिऊणं; | वीरइअर दिख्खिआणं जुग्गे नियमे पवख्खामि ॥१॥ ___अर्थः-प्रम भुवनने विषे एक ( असाधारण ) मदीप समान श्री वीर प्रभुने अने निज मुरूनां चरण कमळने 18 है नीने सर्व विरतिवंत-साधु जनो योग्य (मुखे निर्वही शमाय एवा) नियमो हुं ( सोमसुंदर मूरि) कहीच. ॥ १॥ ३ निअउअरपूरणफला, आजीविअमित्तं होइ पवज्जा; धूलिहडीरायत्तणज्जा-सरिसा, सव्वेसिं हसणिज्जा ॥२॥ - अर्थः-योग्य नियमोनुं पालन कर्या वगरनी प्रव्रज्या ( दीक्षा) फक्त निज उदर पूरण करवा रुप आजीविका चलाववा मात्र फळवाली कहीछे अने एवी दीक्षा (तो) होळीना राजा(इलानी) नी जेवी सहु कोइने हसवा योग्य बनेछे.२ तम्हा पंचायारा,--राहणहेउं गहिज्ज इअ निअमे; लोआइकटरुवा, सव्वज्जा जह भवे सफला ॥३॥ CARRCAUSESARKARISORRE*
SR No.022111
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalabhai Kakalbhai
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1915
Total Pages112
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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