SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२७) 4 वीक्ष्ण बुद्धि होना ही आश्रर्य जनक है । कुबुद्धि होना मुश्किल नहीं है, सुबुद्धि प्राप्त होना ही मुश्किल है ऐसा समझ दोषों की उपेक्षा कर गुणानुरागी होना, लौकिक में गुल ये हैं कि दूसरों का विनय करना और दूसरों का भला करना है वे ही लोकोत्तर गुण होते हैं और त्याग वृति, तथा सम्यक दर्शन प्राप्त कर और निरीह होकर मोक्षार्थ के लिये ज्ञान पढ चारित्र लेना इसलिये लौकिक लोकोत्तर गुण जिसमें अधिक हो उसका संग कर आत्महित करना चाहिये ऋषभदेव प्रभु का जीव जो धनासार्थवाह था उसने मुनिराजों को सेवा करके दान देकर गुणानुराग कर सम्यक्त्व प्राप्त किया, बाद में तीर्थंकर पद पाकर अनेक जीवों को बोध देकर इस अव सर्पिणी काल में प्रथम धर्मोपदेशक होकर मोक्ष में गये जिनको जैन वा जैनेतर ऋषभदेव नाम से स्मर्ण करते हैं. हेमचंद्राचार्य भी लिखते हैं कि आदिमं पृथिवीनाथ, मादिमं निष्परिग्रहं । आदिमं तीर्थनाथं च वृषभ स्वामिनं स्तुमः ॥ १ ॥ ( १३ ) सत्कथक. जो आदमी अशुभ कथा करेगा उसका विवेक रत्न नष्ट होगा और मन में मलिनता होगी इसलिये स्त्री, भोजन, देश और राज कथा छोडनी चाहिये. स्त्रीयों की कथा करने से दुराचार की बृद्धि होती है, भोजन की कथा से घर के भोजन में संतोष नहीं होता, देश कथा से सर्वत्र घूमने की इच्छा होती है राज्य कथा से राजद्रोह का प्रसंग आता है, इस लिये ऐसी कथाओं को छोड़ भव्यात्मा को धर्म कथा में राग धरना जैसे कि तीर्थं करोंने परोपकार के लिये राज्य बैभव को भी छोड़ दीक्षा अंगीकार की है. और दुष्टों ने अनेक दुख दिये तो भी उन पर क्रोध नहीं किया जिससे केवल ज्ञान पाकर मोक्ष में गये आज तक उनका ध्यान दरेक मोक्षाभिलाषी पुरुष करता है, मंदिरोंमें लाखों रुपये खर्च करे धनाढ्य धर्मी श्रावक मनोहर शांत मूर्ति स्थापन कर उनका पूजन करते हैं मुनिराज भी उनका दर्शन कर आत्मा को पवित्र करते हैं पहाड़ों पर उन्होंने जिस जगह मुक्ति पाई है वहां संमेत सिखर में २० तीर्थं करके मंदिर आज भी मौजूद है और उन पवित्र प्रभु के जन्म से
SR No.022110
Book TitleDharmratna Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyamuni
PublisherDharsi Gulabchand Sanghani
Publication Year1916
Total Pages78
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy