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________________ कारिका ९०-९१-९२-९३ ] प्रशमरतिप्रकरणम् शब्दाद् धारणा परिग्रह्यते । बुद्धरङ्गानि शुश्रूषाप्रतिप्रश्नग्रहणादीनि, तेषां विधिः-विधान मागमेन प्रतिपादनम् , तस्य विधेर्विकल्पास्तेषु। कियत्सु ? अनन्तैः पर्यायैर्वृद्धेषु । क्षयोपशमजा बुद्धिविकल्पाः परस्परमनन्तैः पर्यायैर्वृद्धाः असर्वपर्यायसर्वद्रव्यविषयत्वाद् मतिश्रुतयोः, समस्तरूपिद्रव्यनिबन्धनत्वाच्चावधेः तदनन्तभागवर्तिरूपिद्रव्यनिबन्धनवाच्च मनःपर्यायबुद्धेः । इत्येवं बुद्धयङ्गविधिविकल्पेषु अनन्तपर्यायवृद्धेषु सत्सु ॥९१॥ पूर्वपुरुषा गणधरप्रभृतयश्चतुर्दशपूर्वधरादयो यावदेकादशाङ्गविदवसानाः । सिंहा इव सिंहा इव सिंहाः, शौर्येणोपमानम् । परीषहकायेन्द्रियॉरङ्गनिहननात् पूर्वपुरुषसिंहाः । विज्ञानातिशयो विज्ञानप्रकर्षः, स एव सागरः समुद्रो विस्तीर्णत्वात् । अनन्तस्य भाव आनन्त्यं 'बहुत्वम् ' इत्यर्थः । क्षयोपशमजज्ञानस्य प्रकर्षापकर्षवत्वादनन्ता विज्ञानातिशयसागराः 'बहवः' इत्यर्थः । अथवा ज्ञाते सर्वश्रुतग्रन्थे वैक्रियतेजोलेश्याकाशगमनसंभिन्नश्रोत्रादयोऽतिशया बहुप्रकाराः, त एव सागराः एकस्याप्यतिशयस्य दुरवगाहत्वात् । तदेतत् पूर्वपुरुषसिंहानां श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषा दुःषमांशवर्तिनः कथं केन प्रकारेण स्वल्पया खधिषणया माधन्तीति ॥ ९२ ॥ अर्थ-ग्रहण, उग्राहण, नवीन रचना करना, विचारणा तथा अर्थको अवधारण करना वगैरह और बुद्धिके अङ्गोंका आगममें जो विधान है, उसके अनन्त पर्यायोंकी वृद्धिको लिए हुए भेदोंमें पूर्व महापुरुष सागरके समान महान् ज्ञानकी अनन्तताको सुनकर आज-कलके पुरुष अपनी बुद्धिका गर्व कैसे करते हैं ? भावार्थ-अपूर्व सूत्रों और उनके अर्थको ग्रहण करनेमें, दूसरोंको समझानेमें, नवीन प्रकरण वगैरह रचनेमें, सूक्ष्म पदार्थोंका विचार करनेमें, आचार्य वगैरहके मुखसे निकले हुए अर्थका एक बारमें ही अवधारण करने वगैरहमें हमारे पूर्वज बड़े दक्ष थे । तथा शास्त्रोंमें बुद्धिके 'सुननेकी इच्छा' वगैरह जो अङ्ग बतलाये हैं उनके भेद मतिज्ञान आदि हैं, जो परस्परमें अनन्त पर्यायोंकी वृद्धिको लिए हुए हैं। क्योंकि मति और श्रुत सब द्रव्योंको विषय करते हैं । अवधि समस्त रूपी द्रव्यको जानता है, और मनःपर्यय उसके अनन्तवें भाग रूपी द्रव्यको जानता है । इस प्रकार परस्परमें अनन्त पर्यायोंकी वृद्धिको लिए हुए जो बुद्धिके भेद हैं, वे भी हमारे उन चौदह पूर्वके पाठीसे लेकर ग्यारह अङ्गके ज्ञाता . पूर्वजोंमें पाये जाते थे । इस प्रकार उनका ज्ञान सागरके समान गंभीर और अनन्त था। उनके इस ज्ञानातिशयको सुनकर आज-कलके क्षुद्र बुद्धिवाले मनुष्योंको अपने ज्ञानका गर्व नहीं करना चाहिए। किसीके प्रिय होनेका मद मी नहीं करना चाहिए : द्रमकैरिव चाटुकर्मकमुपकारनिमित्तकं परजनस्य । कृत्वा यद्वाल्लभ्यकमवाप्यते को मदस्तेन ॥ ९३॥ १-सर्व पर्यायाः सर्व-फ०, ब०। २-शदशपू-प० । ३-कषायकुर-ब०। ४-प्रतिह-ब०,-ङ्ग प०,-जानानिह-मु०। ५-पूर्व-प०। ६-दुःष-मानुव-प०। ७-न कारणेन स्व-प०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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