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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पञ्चमोऽधिकारः, पञ्चेन्द्रियविषयाः हैं। जवान आदमी, सुरूप न होनेपर भी जवानीके कारण प्रायः सुन्दर लगता है। चाँदी, सोना, मणि, मुक्ता, मूंगा वगैरह तथा गाय, भैंस, बगीचे आदि को धन कहते हैं । स्नेही और विश्वासी पुरुष मित्र कहलाता है । मालिकीको ऐश्वर्य कहते हैं । सम्पदा शब्दका सम्बन्ध हरेकके साथ लगाना चाहिए। जैसे कुलसम्पदा, रूपसम्पदा वगैरह । उठना, बैठनेके लिए आसन देना, हाथ जोड़ना, वगैरह विनय कहलाती है । माध्यस्थता-उदासीनताको प्रशम कहते हैं । जिस प्रसार हंस, सारस, चकवा वगैरहके झुण्डोंसे घिरी हुई भी नदी यदि निर्जल हो तो सुन्दर नहीं लगती, केवल एक लम्बा गढ़ासा दिखलाई पड़नेके कारण भयानक लगती है, वैसे ही अन्य सम्पदाओंसे भरा-पूरा होनेपर भी मनुष्य यदि विनयी न हो तो वह सुन्दर नहीं लगता। न तथा सुमहाध्यैरपि वस्त्राभरणैरलतो भाति । श्रुतशीलमूलनिकषो विनीतविनयो यथा भाति ॥ ६८ ॥ टीका-न तथा शोभते सुमहाय॑वस्त्राभरणभूषितः पुरुषः यथा श्रुतशलिभूषितः । श्रुतमागमः, शीलं मूलोत्तरगुणभेदं चरणम् , तयोनिकषः परीक्षास्थानम् । यदि विनीतस्ततस्तस्य तच्छ्रुतम् , यदि च विनीतस्ततः शीलम् ; अन्यथा मूर्यो दुःशील एव च स्यात् । सुवर्णपरीक्षा पाषाणकः ‘निकषः' इति प्रतीतम् । तद्वत् श्रुतशीलपरीक्षाविनयनिकषे कर्तव्ये विशेषण नीतः प्रापितो विनयो येनासौ ‘विनीतविनयः' इति ॥ ६८ ॥ ___अर्थ—अत्यन्त बहुमूल्य वस्त्र और आभूषणोंसे भूषित मनुष्य भी वैसा सुन्दर नहीं लगता, जैसा श्रुत और शीलकी मूल कसौटीरूप विनयी मनुष्य सुन्दर लगता है। भावार्थ-श्रुत शास्त्रको कहते हैं और शील आचारको कहते हैं। यदि मनुष्य विनीत है, तो उसका श्रुत श्रुत है और शील शील है। अन्यथा उसे मूर्ख और दुःशील ही समझना चाहिए। जो श्रुत और शीलके, परीक्षा करनेके लिए कसौटीके समान है, तथा विनयसे भूषित, वह सबसे सुन्दर है। अपि चऔर भी गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद् गुर्वाराधनपरेण हितकांक्षिणा भाव्यम् ॥ ६९ ॥ टीका-गृणन्ति प्रतिपादयन्ति शास्त्रार्थमिति गुरवः। तदायत्ताः शास्त्रारम्भ्यः। सूत्रपाठप्रवृत्तिरर्थश्रवणप्रवृत्तिश्च गुर्वायत्ताः कालग्रहणस्वाध्यायप्रेषणोद्देशसमुद्देशानुज्ञापरिकराः 'शास्त्रारम्भाः सर्वेऽपि इत्युच्यन्ते । तस्मात् ‘गुर्वाराधनपरेण ' इति । गुरोराराधनम् १शीलश्रुतभू-मु०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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