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________________ कारिका २९० २९१ ] प्रशमरतिप्रकरणम् २०१ और दर्शनोपयोग ही है । अभाव नहीं है। क्योंकि जीव कभी भी अपने उपयोगनयी स्वभावको नहीं छोड़ता । तथा पदार्थ स्वतः ही सिद्ध होते हैं, अतः आत्माका ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग स्वभाव किसी परके निमित्तसे उत्पन्न नहीं होता; किन्तु यह अनादिकालसे ही स्वतः सिद्ध है। यद्यपि उपयोगसे उपयोगान्तर होता रहता है; किन्तु उपयोग सामान्यका नाश कभी नहीं होता। क्योंकि वह ज्ञानस्वभाव है। यद्यपि एक भावका भावान्तररूपसे परिणमन होता है, परन्तु उसका सर्वथा नाश नहीं होता। जिस प्रकार कोई पुरुष एक गाँवसे दूसरे गाँवमें चला जाता है तो उस पुरुषका सर्वथा अभाव नहीं होता। उसी प्रकार जीवके मुक्त होनेपर भी उसका अभाव नहीं हो जाता । इसके सिवाय वीतराग सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित आगममें भी मुक्तात्माको ज्ञान दर्शनस्वभाव कहा है। अतः मुक्तावस्थामें जीव सर्वथा अभाव. रूप सिद्ध नहीं होता। त्यक्त्वा शरीरबन्धनमिहैव कर्माष्टकक्षयं कृत्वा। न स तिष्ठत्यनिबन्धादनाश्रयादप्रयोगाच ॥ २९१॥ टीका-इहैव मनुष्यलोके कस्मान्न तिष्ठति ? उच्यते-शरीरमेव बन्धनं तनिहाय कथं पुनरात्यन्तिकशरीरत्यागः ? कर्माष्टकक्षयकरणादत्यन्तवियोगः शरीरकस्य । न चासाविहैव तिष्ठति, अनिबन्धनत्वात् । न हि तस्येह किञ्चिनिबन्धनमासने कारणमस्ति । शरीरादिनिबन्धनमिहावस्थाने भवति । तच्च समस्तमेव ध्वस्तम् । अनाश्रयत्वान्मुक्तस्यात्यन्तलघोराश्रयः सर्वस्य लोकाग्रारीखरं भवति । प्रलेपाष्टकलिप्ताम्बुतुम्बकस्येव जलमध्यक्षिप्तस्याष्टासु शीणेषुलेपेषु जलस्योपर्यवास्थानमाश्रयो नाधः, तथा मुक्तस्याप्यत्रोपध्नो नास्तीत्यत इह नावतिष्ठत इति । तथाऽप्रयोगात् अप्रयोगो व्यापार आत्मनस्तस्य च तादृशी नास्ति क्रिया, ययावस्थानं कल्पयिष्यते । अतोऽप्रयोगाच्च न स तिष्ठत्यत्रेति ॥ २९१ ॥ अर्थ-शरीररूपी बन्धनको त्याग कर और आठों कर्मोका क्षय करके मुक्तजीव मनुष्यलोकमें नहीं ठहरता; क्योंकि यहाँ ठहरनेका न तो कोई कारण है, न आश्रय है और न कोई व्यापार है । भावार्थ-यह शङ्का हो सकती है, मुक्त होनेपर जीव यहाँ ही क्यों नहीं ठहरता ? अतः उसका समाधान करते हैं । आठों कर्मोंका समूल नाश कर देनेसे शरीररूपी बन्धनका भी अत्यन्त वियोग हो जाता है । इस बन्धनका वियोग होनेपर जीव मनुष्य-लोकमें नहीं ठहरता; क्योंकि उसके यहाँ ठहरनेका कोई कारण नहीं रहता । शरीर आदि बन्धनोंके होनेसे ही जीव यहाँ ठहरता है; किन्तु अब तो वे नष्ट ही हो चुके । दूसरे यहाँ उसके ठहरनेके योग्य आश्रय भी नहीं है। क्योंकि मुकजीव अत्यन्त हलके हो जाते हैं । अतः उनका आश्रय लोकका अग्र भाग हो होता है । जिस प्रकार आठ लेपोंसे लिप्त तूंबीको यदि जलके बीचमें फेक दिया जाये तो उन बाठों लेपोंके घुल जानेपर तूंबी जलके ऊपर आ ठहरती है । नीचे नहीं ठहरती। उसी प्रकार मुक्त जीवको भी यहाँ रोकनेवाला कोई प्रतिबन्धक नहीं रहता, अतः वह प्र०२६
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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