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________________ कारिका ९-१०-११] प्रशमरतिप्रकरणम् कुरङ्गः कृष्णिमानमपि विभ्रने प्रकाशते शोभते पूर्णचन्द्रस्थः । आश्रयगुणो हि अयं यन्मलिनोs पि हरिणो भ्राजते । एवं यदेव सद्भिः परिगृह्यते निस्सारमपि तत्सदाश्रयादेव भ्राजत इति ॥१०॥ अर्थ- - सज्जन जिस वस्तुको आदर के साथ ग्रहण कर लेते हैं, वह निःसार होनेपर भी प्रकाशमें आ जाती है । जिस प्रकार पूर्णमासीके चन्द्रमाके बिम्बके बीच रहनेवाला हिरन काला होनेपर भी प्रकाशमान होता है । भावार्थ- यह आश्रयका ही गुण है कि चन्द्रमामें रहनेवाला काला हिरन भी सुन्दर मालूम देता है। इसी प्रकार सज्जन पुरुष जिस वस्तुको स्वीकार कर लेते हैं, वह निःसार होनेपर भी सज्जनोंका आश्रय पाकर सुन्दर लगने लगती है । तथाऽन्यदपि मुष्मिन्नेव सुजनव्यतिकरे प्रकरणकार उदाहरतिसज्जनोंके इसी व्यतिकरके सम्बन्धमें ग्रन्थकार दूसरा उदाहरण देते हैं: ११ बालस्य यथा वचनं काहलमपि शोभते पितृसकाशे । तद्वत्सज्जनमध्ये प्रलपितमपि सिद्धिमुपयाति ॥ ११ ॥ टीका – बालः शिशुः अनभिव्यक्तवर्णवचनः । तस्य वचनं काहलम् ऋजु स्खलदक्षरगद्गदम्, पितुः समीपे विराजते परितोषजनकत्वात् कौतुकमाधत्ते, पुनः पुनश्च तदेवानुबध्नाति पिता । 'तद्वत्' इति बालकाहलवचनवत् सज्जनानां मध्ये प्रलपितम् - असम्बद्धम् अपि प्रसिद्धिं प्रख्यातिमुपयातीति ॥ ११ ॥ 4 अर्थ - जिस प्रकार बालककी अस्पष्ट बोली भी माता-पिताके पासमें प्यारी लगती है, उसी प्रकार सज्जनोंके बीच में बकवाद भी प्रसिद्धि पा जाता है ! भावार्थ- जब बालक बोलना शुरू करता है, तो उसकी तुतलाती हुई सीधी गद्गद् वाणी माता-पिताको बड़ी मीठी और प्यारी लगती है । इसी प्रकार सज्जनोंके बीच जो कुछ कहा जावे वह असम्भव और व्यर्थकर ही प्रलाप क्यों न हो, गुण-सम्पन्न सज्जनोंको अच्छा ही मालूम होता है, और इससे उसे ख्याति ही मिलती है । सारांश यह है कि सज्जनोंका आश्रय पाकर मेरी असम्बद्ध रचना भी प्रसिद्ध हो जावेगी । अत्राहे परः - - यदि पूर्वमनेकाः प्रथिताः प्रशमजननशास्त्रपद्धतयो महामतिभिः तत्को - यं प्रशमरतिप्रकरणकरणे पुनरादरः ? ता एवाभ्यस्यनीयाः प्रशमकांक्षिणा । उच्यते तो कोई कहता है - जब महामति आचार्योंने वैराग्यको उत्पन्न करनेवाले अनेक शास्त्र रचे हैं, इस ' प्रशमरतिप्रकरण' को बनानेमें आपका इतना आदर क्यों है ? वैराग्यके इच्छुक सज्जनोंको उन्हीं पूर्व शास्त्रोंका अभ्यास करना चाहिए । इसका समाधान कहते हैं: १ बिम्बं प्र – ४० । २ अस्मिन्नेव प० । ३ प्रकरणकारमुदा - मु० । ४ तद्वचनं का - ० । ५ नास्ति वाक्यमिदं प० प्रतौ ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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