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________________ कारिका २५१-२५२-२५३-२५४-२५५ ] प्रशमरतिप्रकरणम् १७५ ____टीका-अध्यवसायविशुद्धिर्मनःपरिणामस्य निर्मलता । तस्याश्चाध्यवसायविशुद्धेहेतुभूतायाः । प्रमत्तयोगैर्विशुद्धयमानस्य प्रमत्तस्य ये व्यापारा मनोवाक्कायविषयास्तविंशोधनशी लस्य विशुद्धयमानस्येति । ततश्चचारित्रशुद्धिमग्रयां प्रधानभूतामवाप्य लेश्याविशुद्धिं च तैजसीपद्मशुक्ललेश्यानामन्यतमलेश्यायाः प्रकृष्टां विशुद्धिं समाप्येति ॥ २५४ ॥ एताः सर्वाः पूर्वकालाः संप्रत्युत्तरक्रियानिर्देशार्थमाह तस्यापूर्व करणमथ घातिकर्मक्षयैकदेशोत्थम् । शुद्धिप्रवेकविभववदुपजातं जातभद्रस्य ॥ २५५ ॥ टीका-यदेतदुक्तमेतदन्तेऽपूर्वकरणमुपजातमप्राप्तपूर्व घातिकर्माणि ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाख्यानि तेषामेकदेशक्षयः । कस्यचित् सर्वक्षयः। तस्मादुद्भुतभाविभूतम् । शुद्धिप्रवेकाः शुद्धिप्रकरास्तेषां विभवः प्राचुर्य ते यत्र विद्यन्ते तत्र शुद्धिप्रवेकविभववतः । भद्रं कल्याणं शुद्धिप्रकारास्तस्यामवस्थायामुपजायन्ते वियद्गमनवैक्रियाणिमादिकाः। जातं भद्रं कल्याणमस्येति । तस्य जातभद्रस्य ॥ २५५ ॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान्के वचनमें जो गुण हैं, उनके समूहका, हिंसा आदि अनर्थोंका, कर्मोंके विपाकका, और अनेक प्रकारकी आकृतियोंका विचार करनेवाले, संसारसे सर्वदा भयभीत, क्षमाशील, गर्वरहित, मायारूपी कालिमाको धो डालनेसे निर्मल, सब तृष्णाओंके जेता, वन और नगरमें, मित्रवर्ग और शत्रुवर्गमें समबुद्धि, शरीरको वसूलेसे चीरने में और चन्दनसे लिप्त करनेमें समान, अपनी आत्मामें ही रमते हुए, तृण और मणिको समान समझनेवाले, लोष्ठकी तरह सुवर्णके भी त्यागी, स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर, प्रमादसे बिलकुल निर्लिप्त, परिणामोंके विशुद्ध होनेके कारण योगोंसे विशुद्ध, प्रधान चारित्रकी विशुद्धि और लेश्या-विशुद्धिको प्राप्त, कल्याणमूर्ति, साधुके घातिकर्मके क्षयके एकदेशसे उत्पन्न होनेवाला और अनेक ऋद्धियोंके वैभवसे युक्त अपूर्वकरण नामका आठवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है। भावार्थ:-जो धर्मध्यानके पहले भेदमें, तीर्थंकरोंके वचनरूप आगमोंमें अहिंसा वगैरह जो अनेक गुण हैं, उनका चिन्तन करता है, दूसरे भेदमें हिंसा, असमाधि आदि जो पाप हैं-उनका विचार करता हैं, तीसरे भेदमें कर्मोके शुभाशुभ फलका विचार करता है और चतुर्थ भेदमें द्रव्योंके और क्षेत्रके पूर्वोक्त अनेक आकारोंका विचार करता है, तथा इन धर्मध्यानोंको करके जो रात-दिन संसारसे डरता हैं रहता है, दस धोके मूल क्षमाधर्मका पालन करता है, गर्वसे रहित है, जिसने मायाचाररूपी कालिमाको धो डाला है, जिसे लोभ छू भी नहीं गया है, जो वन और नगरमें, शत्रु और मित्रमें, चन्दनके लेप और वसूलाके प्रहारोंमें तृण और मणिमें तथा ढेले और सोनेमें समान भाव रखता है। अर्थात् जिसके लिए जैसा ही वन है वैसा ही नगर है, जो शत्रु और मित्र-दोनोंको ही अपनेसे भिन्न जानकर समान भावसे देखता है, उसके शरीरको जो वसूलेसे चीरता है तथा जो उसपर चन्दनका लेप करता है, उन
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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