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________________ १७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [सप्तदशोऽधिकारः, ध्यानानि विचय । जो शोल-समुद्रके पारको प्राप्त कर लेता है, वह इन चारों ध्यानोंमेंसे पहले और दूसरे ध्यानको प्राप्त करके तब तीसरे और चौथे धर्मध्यानको प्राप्त करता है । तत्राज्ञाविचायापायविचययोः स्वरूपनिरूपणायाह आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञाविचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आस्रवविकथागौरवपरीषहायेष्वपायस्तु ॥ २४८ ॥ टीका-आप्तः क्षीणाशेषरागद्वेषमोहस्तस्य वचनं वचनमलीकादिशंकादिरहितं द्वादशाङ्गमागमः । तस्याः खल्वाज्ञायाः सर्वज्ञदत्ताया विचयो गवेषणं गुणवत्त्वेन निर्दोषत्वेन च । तस्यार्थप्रवचनस्य निर्णयनं विनिश्चयः । सर्वानवद्वारनिरोधैकरसत्वाद्गणयुक्तम् । न कवि दोषोऽस्तीति । आज्ञाविचयोऽभ्यासः सूत्रार्थविषयः । आस्रवः कायवाग्मनांसि । विकथा स्त्रीभक्तचौरजनपदविषयाः । गौरवमृद्धिसातरसाख्यं त्रिधा । परीषहाः क्षुत्पिपासादयः । आदिग्रहणादगुप्तित्वमसमितित्वं च । एतेषु वर्तमानस्य जन्तोरपायबहुत्वं नारकतिर्यक्त्वदेव. मानुषजन्मसु प्रायेण प्रत्यवायाः संभवन्ति भूयांस इति पश्चार्द्धन निरुपितमपायविचयम् ॥२४८॥ अर्थ-आप्तके वचनको प्रवचन कहते हैं। उसके अर्थका निरूपण करना, आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है । और आस्रव विकथा, गौरव, परीषह वगैरहमें अनर्थका चिन्तन करना अपायविचय नामका धर्मध्यान है। भावार्थ-जिसके समस्त राग, द्वेष, और मोह क्षीण होगये हैं, उसे आप्त कहते हैं और उसके वचनको प्रवचन कहते हैं, अर्थात् असत्यता और शंका आदि दोषोंसे रहित द्वादशांग आगमको प्रवचन कहते हैं । उसके अर्थका निर्णय आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान है । अथवा प्रवचनके रूपमें सर्वज्ञदेवने जो आज्ञा दी है, उसकी गुणशालिता और निर्दोषताका विचार करना आज्ञाविचय है। सारांश यह है कि द्वादशांग वाणीके अर्थक अभ्यास करनको आज्ञाविचय कहते हैं। __ मन, वचन और कायके व्यापारको आस्रव कहते हैं । स्त्री, भोजन, चोर और देशकी बातें करना विकथा है । ऐश्वर्य, सुख और रसको गौरव कहते हैं । भूख-प्यास आदिकी बाधाको परीषह कहते हैं। आदि पदसे गुप्ति और समितिका अभाव लेना चाहिए। जो जीव इनमें पड़ता है। उसे अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगतिमें उसे प्रायः करके बहुत दुःख भोगना पड़ता है। इस प्रकार आस्रव आदिकी बुराइयोंका चिन्तन करना-अपायविचयधर्मध्यान है। तृतीयचतुर्थभेदयोर्निरूपणायाह- .. तीसरे और चौथे भेदका स्वरूप कहते हैं:१-स्वरूपणायाह फ०। २-प्रवचनमलीकादिर-फ०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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