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________________ १७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [षोडदशोऽधिकारः, शीलाङ्गानि नानुमोदयति, एतत्रयं स्थाप्यम् । तस्याप्यधः षष्ठपंक्तौ मनसा वाचा कायेनेति त्रयं विरचनीयम् । तत्र विकल्पानयने उच्चारणम् । क्षमयान्वितः पृथ्वीकायसमारम्भं संवृतश्रौत्रेन्द्रियद्वारः आहारसंज्ञाविप्रयुक्तो न करोति मनसा । एवं पृथ्वीकायमपरित्यजन् दश विकल्पान् लभते । एवमप्यकायसमारम्भादिष्वपि दशसु दश विकल्पा लभ्यन्ते । ते दश दशकाः शतम् । एतच्छतं श्रात्रेन्द्रियममुञ्चता लब्धम् । एवं चक्षुरादिभिरपि शतं शतं लभ्यते । जातानि पञ्च शतानि । एतान्याहारसंज्ञाममुञ्चता लब्धानि । तथा भयमैथुनपरिग्रहसंज्ञादिभिरपि प्रत्येकं पञ्च पञ्च शतानि लभ्यन्ते । जातं सहस्त्रद्वयम् । एतत् सहस्रद्वयं न करोमीत्यमुञ्चता लब्धम् । एवमितराभ्यामपि द्वे द्वे सहस्र लब्धे । ततश्च षट् सहस्त्राणि जातानि । एतानि च मनसा लब्धानि । वाचापि षट् सहस्त्राणि । कायेनापि षडेव सहस्त्राणीति । एवमेषां शीलाङ्गानां शीलकारणानामष्टादशसहस्त्राणि निष्पाद्यन्ते ॥ २४५॥ अर्थ-धर्म, पृथ्वीकाय वगैरह, इन्द्रियाँ, संज्ञा, कृत, कारित, अनुमोदना, और मन, वचन, कायक मेलसे शीलके अठारह हजार अङ्गोंकी उत्पत्ति होती है। भावार्थ-पहली पंक्तिमें क्षमा आदि दस धर्मोको रखना चाहिए। उसके नीचे दूसरी पंक्तिमें पृथ्वी, अल, अग्नि, वायु, वनस्पति, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अजीवकायको रखना चाहिए। उसके नीचे तीसरी पंक्तिमें श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियोंको रखना चाहिए । उसके नीचे चौथी पंक्तिमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रहसंज्ञाको रखना चाहिए। उसके नीचे पाँचवीं पंक्तिमें 'न करता है', 'न कराता है। और न 'दूसरोंको करता हुआ देखकर उसकी अनुमोदना करता है - इन तीनोंकी स्थापना करनी चाहिए। उसके नीचे छठी पंक्तिमें मन, वचन और कायको रखना चाहिए । इनको मिलाकर भेदोंका उच्चारण इस प्रकार करना चाहिए-क्षमा धर्मसे युक्त पृथ्वीकायके आरंभको. श्रोत्रेन्द्रियके द्वारको बन्द करके, आहारसंज्ञासे रहित, मनसे नहीं करता है, । इस प्रकार पृथ्वीकाय और उसके नीचेके सब विकल्पोंको दसों धर्मों के साथ लगानेसे दस भेद होते हैं। इसी प्रकार जलकाय, अग्निकाय वगैरह दूसरी पंक्तिके दसों विकल्पोंके दस दस मेद जान लेने चाहिए । सब मिलाकर सौ भेद हुए। इन सौ भेदोंमें श्रोत्रेन्द्रिय सम्मिलित है। क्योंकि कायके बदलते रहनेपर भी नीचेके सब विकल्प प्रत्येकके साथ ज्योंके त्यों रहते हैं । अतः श्रोत्रेन्द्रियके स्थान में चक्षुन्द्रियको रखनसे उसके भी इसी प्रकार सौ भेद होते हैं। इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के भी जानने चाहिए। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों के पाँचसौ भेद होते हैं। इन पाँचसी भेदोंमेंसे प्रत्यकेके साथ आहारसंज्ञा लगी हुई है; क्योंकि धर्म, काय और इंद्रियोंके परिवर्तन होनेपर भी अभी संज्ञा आदिका परिवर्तन नहीं हुआ है । अतः आहारसंज्ञाकी ही तरह भय, मैथुन और परिग्रहसंज्ञाके भी पाँचसौ पाँचसौ भेद हुए। सब मिलाकर दो हजार भेद हुए। इन दो हजार भेदोंमें प्रत्येकके साथ नहीं करता है ' विकल्प लगा हुआ है; क्योंकि अभी संज्ञासे नीचे के विकल्पोंमें परिवर्तन नहीं हुआ। अतः शेष दो विकल्पोंके भी दो दो हजार भेद होते हैं। तीनोंके मिलाकर छह हजार भेद होते हैं, इन छह हजार भेदों से प्रत्यकके साथ मन सम्मिलित है, वचन
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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