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________________ कारिका २२५-२२६-२२७] प्रशमरतिप्रकरणम् १५९ ध्रुव-इन चार प्रकारके पदार्थों के अवग्रहादि चारों ज्ञान होते हैं और उनमें से प्रत्येक ज्ञान पाँचों इन्द्रियों और मनसे उत्पन्न होता है । अतः मतिज्ञान १२ x ४४ ६ = २८८ प्रकारका है । तथा अवग्रहके दो भेद हैं । एक अर्थावग्रह और दूसरा व्यञ्जनावग्रह । व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मनके सिवा शेष चारों ही इन्द्रियों से होता है और बारह ही प्रकारके पदार्थोंका होता है । अतः उसके १२४ ४ = ४८ भेद होते हैं । पूर्वोक्त २८८ भेदोंमें ४८ भेदोंको मिलानेसे मतिज्ञान ३३६ प्रकारका होता है। श्रुतज्ञान भी अंगबाह्य और अंगप्रविष्टके भेदसे दो प्रकारका है। अंगबाह्य श्रुतके अनेक भेद हैं। अंगप्रविष्ट श्रुतके आचाराङ्ग, सूत्रकृतांग आदि बारह भेद हैं। ये दोनों परोक्षज्ञान समस्त द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंका जानते हैं । अवधिज्ञानके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट आदि अनेक भेद हैं। तथा वह रूपी द्रव्योंको ही जानता है । मनःपर्ययज्ञानके-ऋजुमति, विपुलमति वगैरह भेद हैं। वह अवधिज्ञानके विषयीभूत रूपी द्रव्यके अनन्तवें भागको जानता है । अतः उसकी अपेक्षासे विशुद्धतर है । केवलज्ञान समस्त द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको जानता है । इस प्रकार भेदों और विषयकी अपेक्षासे ज्ञानोंका विस्तारसे बोध होता है । 'आदि' पदसे क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे भी विभाग कर लेना चाहिए। इन पाँचों ज्ञानों से एक जीवके एकसे लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं । एक ज्ञान मतिज्ञान होता है । अक्षरात्मक श्रुतज्ञान सब जीवोंके नहीं होता। अतः अकेला मतिज्ञान बतलाया है। कभी मति और श्रुत दोनों होते हैं । कभी मति, श्रुत और अवधि तीन ज्ञान होते हैं । कभी मति, श्रुत अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान होते हैं । किन्तु एक साथ पाँचों ज्ञान कभी नहीं होते।' सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानयोः किंकृतो भेद इत्याहसम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानमें भेद होनेका कारण बतलाते हैं:सम्यग्दृष्टानं सम्यग्ज्ञानमिति नियमतः सिद्धम् । आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् ॥ २२७ ॥ टीका-सम्यग्दृष्टिस्तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनसम्पन्नः शङ्कादिशल्यरहितस्तस्य यज्ज्ञानं तत्सम्यग्ज्ञानम् । यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदित्वात् नियमेनेवाव्यभिचारि सिद्धम् । आयत्रयमज्ञानमपि । मिथ्यादर्शनयोगात् मतिश्रुतावधयः सदसदविशेषपरिज्ञानाधइच्छातो वाऽसदुपलब्धेरुन्मत्तवत् । ज्ञानफलाभावाच्च मिथ्यादृष्टेरज्ञानमेव ॥ २२७ ॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टिका ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, यह नियमसे सिद्ध है । आदिके तीन मति, श्रुत, और अवधि, मिथ्यात्वसे संयुक्त होने पर मिथ्याज्ञान भी होते हैं । १-एकं तावत् केवलज्ञानं न तेन सहान्यानि क्षयोपशमिकानि युगपदवतिष्ठन्ते । द्वे मतिश्रुते । त्रीणि मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मतिश्रुतभनःपर्थयज्ञानानि वा, चत्वारि मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानानि । न पञ्च सन्ति, केवलस्वासहायत्वात् ।-श्रीपूज्य पादकृत-सर्वार्थसिद्धि, प्रथम अध्याय सूत्र । ३० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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