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________________ कारिका १७९-१८०-१८१ ] प्रशमरतिप्रकरणम् १२५ अर्थ-अहंकार और ममकारके त्यागसे अत्यन्त दुर्जय, उद्धत और बलशाली परीषह, गौरव, कषाय, योग और इन्द्रियों के समूहको नष्ट कर डालता है । भावार्थ-माया और लोभको ममकार कहते हैं और मान और क्रोधको अहंकार कहते हैं। जो दस धर्मोंका पालन करता है, उसके ममकार और अहंकार छूट जाते हैं । और उनके छूटनेसे वह आत्माके प्रबल शत्रु परीषह वगैरहके ब्यूहको भेदनेमें समर्थ होता है । यथा वैराग्यमार्गे स्थैर्य भवति तथा च यतत इत्याहजिस रीतिसे वैराग्यमार्गमें स्थिरता होती है, वैसा यत्न करता है, यह कहते हैं : प्रवचनभक्तिः श्रुतसम्पदुद्यमो व्यतिकरच संविग्नः । वैराग्यमार्गसद्भावभावधीस्थैर्यजनकानि ॥ १८१ ॥ टीका-प्रोच्यन्ते येन जीवायस्तत्प्रवचनम्, तत्र भक्तिः सेवा तदनुध्यानपरता, संघभट्टारको वा प्रवचनं प्रवक्तीति । श्रुतसम्पदि उद्यम उत्साहः, श्रुतमागमस्तस्य सम्पद् उपचयः अपूर्वमपूर्वमधीते प्रवचनम् । व्यतिकरश्च संविनैः, संविनाः संसारभीरवस्तैः सह सम्पर्को यथोक्तक्रियानुष्ठायिभिर्व्यतिकरः संसर्गः । एभिर्वैराग्यमार्गस्थैर्य भवति। न केवलं वैराग्यमार्गस्थैर्यम्, सद्भावभावयोर्बुद्धिस्तस्याश्च भवति स्थैर्यम् । सद्भावा जीवादयः । एते च यथा भगवद्भिरुक्तास्तथेति स्थिरीभवति बुद्धिः । भावः क्षयोपशमजं दर्शनादि भगवत्सु वा तीर्थकृत्सु साधुषु " एते वन्दनीयाः पूजनीयाः" इति एवंविधाया धियः स्थैर्य जनयन्त्येतानीत्यर्थः ॥ १८१ ॥ अर्थ-प्रवचनमें भक्ति, शास्त्र-सम्पत्तिमें उत्साह और संसारसे भीतजनोंका सम्पर्क वैराग्यमार्गमें जीवादिक पदार्थोंमें और क्षयोपशमादिक भावोंमें बुद्धिको स्थिर करते हैं । र भावार्थ-शास्त्रको प्रवचन कहते हैं। क्योंकि उसके द्वारा जीवादि पदार्थोंका कथन किया जाता है । अथवा परम भट्टारक अर्हन्तदेवको प्रवचन कहते हैं क्योंकि वे प्रवचनका उपदेश करते हैं, उनमें भक्ति रखनेसे नये-नये शास्त्रोंका अध्ययन करके अपने शास्त्र-ज्ञानको खूब बढ़ानेसे और संसारसे विरक्त साधुजनोंके सम्पर्कमें रहनेसे मन वैराग्य-मार्गमें दृढ़ होता है । जीवादिक तत्त्वोंमें आस्तिक्यबुद्धि होती है और क्षयोपशमादिजन्य सम्यग्दर्शनादि भावोंकी प्राप्ति होती है । अर्थात् भक्तिपूर्वक शास्त्राभ्यास करने और साधुजनोंकी संगति करनेसे वैराग्य-मार्गमें मन स्थिर हो जाता है । तीर्थंकरोंके द्वारा कहे गये पदार्थों में यह भाव दृढ़ हो जाता है, कि तत्व वैसे ही हैं, जैसे कि भगवान्ने कहे हैं, तथा तीर्थकरोंमें पूज्य बुद्धि भी और अधिक दृढ़ हो जाती है। ___ एतेष्वेव धीस्थैर्यमिच्छता चतुर्विधा धर्मकथाऽम्यसनीयेत्याह इन्हींमें बुद्धिको स्थिर रखनेके लिए चार प्रकारकी धर्म-कथाके अभ्यास करनेका निर्देश करते हैं :--
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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